SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे कालो १४१ $ २६४. देवगईए देवेसु मिच्छत्त-अणंताणु० चउक्क० भुज०-अवहि० अणंताणु० चउक्क० अवत्त० ओघो। अप्प० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोबमाणि । सम्म०सम्मामि० भुज०-अबहि-अवत्त० ओघो। अप्प० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ०-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमोघो । णवरि बारसक०-पूरिस०-भय-दुगुंछ० अवहि० उक० संखेज्जा समया। चदुगोकसाय० अवहिदं णत्थि । इत्थि०-णस० सुज. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्प० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं भवणादि जाव उपरिमगेवज्जा ति । णवरि जत्थ तेतीसं सागरोवमाणि तत्थ सगहिदी भाणिदव्यां । भवण-वाणजोदिसि० इत्थि०-णqस० सगहिदी देसूणा । $ २६५. अणुद्दिसादि जाव सवडा ति मिच्छ०-सम्मामि०-इत्थि०-णqस० अप्पद० जहण्णुक्कस्से० जहण्णुक्कस्सहिदीओ । सम्म० अप्प० जह० एगस० अल्पतर पद वन जाता है । मात्र मनुष्यिनीमें यह काल कुछ कम तीन पल्य ही प्राप्त होता है। इसलिए इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें उक्त दो वेदोंके अल्पतर पदका उक्त काल कहा है। शेष कथन सुगम है। ६२६४. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका भङ्ग अोधके समान है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा चार नोकषायोंकी अवस्थितविभक्ति नहीं है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर उपरिम वेयकतकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहां पर तेतीस सागर कहे हैं वहां पर अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिए। विशेषार्थ--सौधर्मादिकमें सम्यग्दृष्टि जीव अपने पूरे काल तक पाये जाते हैं और भवनत्रिकमें नहीं, इसलिए यहाँ भवनत्रिकमें त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहा है और सौधर्मादिकमें पूरी अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ६२६५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी जघन्य और १. ता०प्रतौ 'अवटि संखेजा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy