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________________ १४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ पुरिस ०. ०-भय- दुर्गुछ० ओघो । णवरि अवद्वि० अंतोमुहुतं णत्थि । इत्थि० णवुंस० भुज० जह० एगस०, उक्क० तोमु० | अप्प० जह० एगस०, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि । जोणिणी देणाणि । हस्स- रइ - अरइ - सोगाणमोघो । वरि अवद्विदं णत्थि । २२. पंचि०तिरिक्खापज्ज० मिच्छ० - सोलसक०--भय- दुर्गुछ० भुज०अप० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । अवद्वि० जह० एस ०, उक्क० संखेज्जा समया । सम्म० - सम्मामि० अप्प० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सत्तणोक ० भुज० - अप्प० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज्जत्तएसु । $ २६३, मणुसतिए पंचिदियतिरिक्खभंगो। णवरि इत्थि० णवुंस० अप्प० जह० एगस०, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि पुन्त्रकोडितिभागेण सादिरेयाणि । मसणी देणाणि | बारसक० णवणोक० अवद्वि० ओघमंगो । तीन पल्य है । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग घके समान है । इतनी विशेषता है कि अवस्थितविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल नहीं है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है । मात्र योनिनी जीवों में यह काल कुछ कम तीन पल्य है । हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनका अवस्थित पद नहीं है । विशेषार्थं पश्चन्द्रिय तिर्यवत्रिककी कायस्थिति पूर्व कोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । इसलिए इनमें जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका काल उक्तप्रमाण कहा है वह अपनी अपनी कास्थितिको ध्यान में रखकर घटित कर लेना चाहिए। मात्र तिर्योंकी कायस्थिति अनन्त काल है पर उनमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अल्पतरविभक्ति पल्य के असंख्यातवें भाग अधिक तीन पल्य काल तक ही बन सकती है, इसलिए यह काल उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार शेष कालको भी विचार कर घटित कर लेना चाहिए । $ २०. चन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तक जीवोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सात नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । § २६३. मनुष्यत्रिक में पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसक वेदकी अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल ) एक पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है । मात्र मनुष्यिनियोंमें कुछ कम तीन पल्य है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवस्थित पदका भङ्ग श्रोघके समान है । विशेषार्थ -- -- सामान्य मनुष्य और मनुष्य पर्याप्त एक पूर्वकोटिके त्रिभाग अधिक तीन पल्य काल तक सम्यक्त्वी हो सकते हैं और इनके इतने काल तक स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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