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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भुजगारे कालो १३६ ____$ २६०. पढमाए जाव छहि ति मिच्छ० भुज० ओघं। अप्प० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी भाणिदव्वा । अवहि० जह० एगस०, उक्क० सत्तहसमया छावलिया वा । सम्म०-सम्मामि० भुज. जह• उक. अंतोमु० । अप्प० जह० एगस०, उक्क० सगहिदीओ। अवत्त-अवहि० ओघभंगो । अणंताणु०चउकस्स मिच्छत्तभंगो। णवरि अवत्त० जहण्णुक्क० एगस० । अवहिद० उक्क० संखेजा चेव समया। बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ० ओघो। इत्थि-णस. भुज. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्पद० जह० एगसमओ, उक० सगहिदी देसूणा । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं गिरओघभंगो।। २६१. तिरिक्खगईए तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिए मिच्छ०-अणंताणु०चउक्कागमोघो । णबरि अप्प० जह• एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि । पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि तिणि पलिदो० पुव्वकोडिपुषत्तेणब्भहियाणि । सम्म०-सम्मामि० भुज०-अवहि-अवत्त० ओघं । अप्प० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि । पंचिंदियतिरिक्वतियम्मि तिण्णि पलिदो० पुब्बकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । बारसक० ६२६०. पहली पृथिवी से लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार विभक्तिका काल ओघके समान है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिए। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय अथवा छह श्रावलि है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगारविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। अवक्तव्य और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात ही समय है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग ओघके समान है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । हास्य, रति, अरति और शोकका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। विशेषार्थ-यहाँ जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका काल अपनी स्थितिप्रमाण कहा है वहां अपने अपने नरककी उत्कृष्ट स्थिति लेनी चाहिए। शेष कथन सुगम है। ६ २६१. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यश्च और पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तिर्यञ्चोंमें पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन पल्य है तथा पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें पूर्व कोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्यकी भुजगार, अवस्थित और अव्यक्तव्यविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तियञ्चोंमें पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन पल्य है और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें पूर्व कोटिपृथक्त्व अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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