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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मसंदिदं सिद्ध । * कोषसं जलणे उक्कस्सपदेससंतकम्म विसेसाहिय। १७४. सुगममेत्य कारणं, पयडिविसेसस्स बहुसो परूविदत्तादो । * मायासंजलणे उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १७५. पयडिविसेसस्स तहाविहत्तादो। * लोभसं जलणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १७६. एत्थ जइ वि संदिहीए चउण्हं संजलणाणं भागा सरिसा तहा वि अत्थदो पयडिविसेसेण आवलियाए असंखे०भागपडिभागिएण विसेसाहियत्तमस्थि चेवे सि घेत्तव्वं । सेसं सुगमं । एवं णिरयगइओघुक्कस्सदंडओ समत्तो । * एवं सेसाणं गदीणं णादूण णेदव्वं । $ १७७. एदस्स अप्पणामुत्तस्स संखेवरुइसिस्साणुग्गहह दबटियणयावलंबणेण पयट्टस्स पज्जवद्वियपरूवणा पज्जवहियजणाणुग्गहट्ट कीरदे । तं जहा--एत्थ ताव णिरयगईए चेव पुढविभेदमासेज विसेसपरूवणा कीरदे । कधं पुण एदस्स णिरयगईदो अव्वदिरित्तस्स सेसत्तं जदो इमा परूवणा सुत्तसंबदा हवेज त्ति ? ण एस द्रव्य पुरुषवेदके द्रव्यसे एक चौथाई अधिक है यह असंदिग्ध रूपसे सिद्ध हुआ। * उससे क्रोधसंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ १७४. यहाँ पर कारणका निर्देश सुगम है, क्योंकि प्रकृतिविशेषरूप कारणका अनेक पार कथन कर आये हैं। * उससे मायासंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १७५. क्योंकि प्रकृतिविशेष इसी प्रकारकी होती है। * उससे लोभसंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ १७६. यहाँ पर यद्यपि संदृष्टिमें चारों संज्वलनोंके भाग समान दिखलाये हैं तथापि बास्तवमें प्रकृतिविशेष होनेके कारण श्रावलिके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागके अनुसार मायासंज्वलनके द्रव्यसे लोभसंज्वलनका द्रव्य विशेष अधिक ही है ऐसा यहांपर ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार नरकगतिसम्बन्धी अोघ उत्कृष्ट दण्डक समाप्त हुआ। * इसी प्रकार शेष गतियोंमें जानकर अल्पबहुत्व ले जाना चाहिए। ६ १७७. संक्षेप रुचिवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिए द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन लेकर प्रवृत्त हुए इस मुख्य सूत्रका पर्यायार्थिक शिष्योंका अनुग्रह करनेके लिए विशेष कथन करते हैं। यथा-सर्व प्रथम यहाँपर नरकगतिके ही पृथिवीभेदोंके आश्रयसे विशेष कथन करते हैं। शंका-यदि यह सूत्र नरकगतिसे अपृथग्भूत अर्थका कथन करता है तो फिर सूत्रमें 'शेष' पदका प्रयोग कैसे किया जिससे यह कथन सूत्रसे सम्बन्ध रखनेवाला होवे ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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