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________________ गा० २२] उत्सरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूपणा दोसो, सामण्णादो विसेसाणं कथंचि भेददंसणेण सेसत्तसिद्धीदो । 'उपयुक्तादन्यः शेष' इति न्यायात् ।) १७८. तत्थ पढमपुढवीए गिरओघभंगो। विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्मं सव्वत्थोवं कादव्वं, कदकरणिज्जस्स तत्थुप्पत्तीए अभावादो । तत्तो सम्मामिच्छत्ते उक्कस्सपदेससंतकम्ममसंखे गुणं । कारणं सुगम । एतिओ चेव विसेसो पत्थि अण्णस्थ कत्थ वि। १७६. तिरिक्रव-पंचिंदियतिरिक्व-पंचितिरि०पज्जत्ताणं देवगईए देवाणं च सोहम्मादि जाव सवसिद्धि त्ति पढमपुढविभंगो। णवरि सामित्तविसेसो जाणेयव्यो। पंचिंतिरि० जोणिणी-पंचितिरि०अपज्ज.-मणुसअपज्ज०-भवण ०-वाण-जोदिसियाण विदियादिपुढविभंगो। मणुसतियस्स ओघभंगो। संपहि सेसमग्गणाणं देसामासियभावेण इंदियमग्गणेयदेसभूदएईदिएसु त्योवबहुत्तपरूवणहमुत्तरमुत्तकलावं भण्णदि । * एइंदिएसु सव्वत्थोवं सम्मत्त उकस्सपदेससंतकम्मं । १८०. एत्थ एइंदिएम त्ति सुत्तणिद्द सो' सेसिंदियपडिसेहफलो। सव्वेहितो उवार वुच्चमाणसव्वपदेसेहितो थोवं अप्पयरं सव्वत्थो । किं तं ? सम्मत्ते उकस समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सामान्यसे अपने अवान्तर भेदोंमें कथञ्चित् भेद देखा जाता है, इसलिए 'शेष' पद द्वारा उनके ग्रहणकी सिद्धि होती है। विवक्षित विषयसे अन्य 'शेष' कहलाता है ऐसा न्यायवचन है। ६ १७८. यहाँ प्रथम पृथिवीमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसीप्रकार भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इन पृथिवियोंमें सम्यक्त्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सबसे स्तोक करना चाहिए, क्योंकि वहाँपर कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता । उससे सम्यग्मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है। कारण सुगम है। इन पृथिवियोंमें इतनी ही विशेषता है, अन्यत्र कहीं भी अन्य विशेषता नहीं है। ६ १७६. तियश्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, देवगतिमें सामान्य देव और सोधर्मसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव इनमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग हैं। इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्वामित्व जान लेना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तियश्च योनिनी, पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी इनमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भङ्ग है। अब शेष मार्गणाओंके देशामर्षकरूपसे इन्द्रियमार्गेणके एकदेशभूत एकेन्द्रियोंमें अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्रकलाप कहते हैं * एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सबसे स्तोक है । $ १८०. यहाँ 'एकेन्द्रियोंमें' इस प्रकार सूत्रमें निर्देशका फल शेष इन्द्रियोंका निषेध करना है। सबसे ऊपर कहे जानेवाले सब प्रदेशोंसे स्तोक अर्थात् अल्पतरको सर्वस्तोक कहते हैं। १. भाप्रतौ 'सुतिमिहेसो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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