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________________ पदेस वित्ती द्विदिचूलियाए सामित्तं ४२१ * इत्थवेदसंजदेण इत्थवेद- पुरिसवेदपूरिदकम्मंसिएण अंतोमुहत्तस्संतो दो वारे कसाए उवसामिदा । जाधे विदियाए उवसामणाए जणस्स द्विदिबंधस्स पढमणिसेयहिदी उदयं पत्ता ताधे अधाणिसेयादो सेियादो च उक्कस्सयं हिदिपत्तयं । गा० २२ S६६१. एत्थ इत्थवेदसंजदेणे ति वयणं सोदरण सामित्तविहाणडौं, परोद एण पयदुकस्ससामित्तविहाणोवायाभावादो । तेणेस्थिवेदसंजदेणेस्थिवेद-पुरिसवेदपूरिदकम्मं सिएण तो मुहुत्तस्संतो दो वारे कसाया उवसामिदा । एकवारं कसाए उवसामिय पडिवदिय पुणो वि सव्वलहुं कसाया उवसामिदा ति उत्तं होइ । ण च पुरिसवेदपूरिदकम्मं सियत्तमेत्थाणुवजेगी, स्थितकसंकमेणोव जो गित्तदंसणादो। ण णसयवेदपूरियकम्मंसिएण अइप्पसंगो, असंखेज्जवरसाउएसु अधाणिसेयसंचयकाल अंतरे तस्स पूरणोवायाभावादो | सेसं जहा कोहसंजलणस्स भणिदं तहा वत्तव्यं । णवरि असंखेज्जवसा अतिरिक्खे मस्से वा संखेज्जतोमुहुत्तम्भहियसोलसवस्सेहिं सादिरेयदसवस्तसहस्स परिहीणमधाणिसेय संचयकालमणुपालिय तत्थित्थि - पुरिसवेदे पूरेयूण तदो दसवस्ससहस्सिएसुववज्जिय कमेण मणुस्सेसु आगदी त्ति वत्तव्वं । जहा कोहसंजलणस्स उवसामयसंचयाणुगमो लद्धपमाणाणुगमो च कओ तहा एत्थ वि णिरवसेसो * स्त्रीवेद और पुरुषवेदके कर्माशको पूरण करनेवाला जो स्त्रीवेदके उदयवाला संयत जीव अन्तर्मुहूर्त के भीतर दो बार कषायका उपशम करता है और ऐसा करते हुए जब उसके दूसरी उपशामना के समय जघन्य स्थितिबन्धकी प्रथम निषेकस्थिति उदयको प्राप्त होती है तब वह उत्कृष्ट यथानिषेक और निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है । 1 $ ६६१. सूत्र में ' इत्थवेदसंजदेण' यह वचन स्वोदयसे स्वामित्वका कथन करनेके लिये दिया है, क्योंकि परोदयसे प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । ऐसा जो स्त्रीवेदके उदयवाला संयत जीव है वह स्त्रीवेद और पुरुषवेद के कमांशका पूरण करके अन्तर्मुहूर्तकाल के भीतर दो बार कषायों को उपशमाता है। एक बार कषायों का उपशम करके और उपशम श्रेणी से च्युत होकर फिर भी अतिशीघ्र कषायोंका उपशम करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यदि कहा जाय कि पुरुषवेदके कर्मांशका पूरण करना प्रकृत में अनुपयोगी है सो ऐसी बात भी नहीं है, क्योंकि स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा उसकी उपयोगिता देखी जाती है । और ऐसा कथन करनेसे जिसने नपुंसक वेद के कर्मांशका पूरण किया है उसके साथ अतिप्रसङ्ग भी नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें यथानिषेक संचयकाल के भीतर उसका पूरण करना नहीं बन सकता है। शेष कथन क्रोधसंज्वलनके समान करना चाहिये । किन्तु प्रकृतमें इतना विशेष कहना चाहिये कि असंख्यात वर्षकी युवाले तिर्यंच और मनुष्यों में संख्यात अन्तर्मुहूर्त और सोलह वर्ष अधिक दस हजार वर्षंसे न्यून यथानिषेक संचयकालका पालन करके तथा वहाँ स्त्रीवेद और पुरुषवेदका पूरण करके फिर वहाँसे निकलकर दस हजार बर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर क्रमसे मनुष्य हुआ । क्रोधसंज्वलनका जिस प्रकार उपशामकसम्बन्धी सञ्चयका और लब्धप्रमाणका विचार किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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