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________________ ४२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ॐ पुरिसवेदस्स चत्तारि वि डिदिपत्तयाणि कोहसंजलणभंगो। ६६८७. पुरिसवेदस्स जहावसरपत्ताणि चत्तारि वि हिदिपत्तयाणि कस्से ति मासंकिय कोहसंजलणभंगो ति अप्पणा कया, विसेसाभोवादो। संपहि उदयहिदिपत्तयसामित्तगयविसेसपदुप्पायणहमुत्तरमुत्तारंभो ® णवरि उदयहिदिपत्तयं चरिमसमयपुरिसवेदखवयस्स गुणिदकम्मंसियस्स। ६८८. तत्थ चरिमसमयकोहवेदयस्स खवयस्स पयदुक्कस्ससामितं, एत्थ पुण चरिमसमयपुरिसवेदयस्स खवयस्से त्ति वत्तव्वं । अण्णं च गुणिदकम्मंसियत्तं पि एत्थ विसेसो, तत्थ गुणिदकम्मंसियत्तस्साणुवजोगितादो । एत्थ पुण गुणिदकम्मंसियत्तमुवजोगी चेव, अण्णहा पयडिगोवुच्छाए थूलभावाणुप्पत्तीदो । * इत्थिवेदस्स उक्कस्सयमग्गहिदिपत्तयं मिच्छत्तभंगो। ६८६. सुगममेदमप्पणामुत्तं ।। ® उक्कस्सयअधाणिसेयहिदिपत्तयं पिसेयहिदिपत्तयं च कस्स ? ६६०. सुगममेदं पुच्छामुत्तं । * पुरुषवेदके चारों ही स्थितिप्राप्त द्रव्योंका भंग क्रोधसंज्वलनके समान है। ६६८७. अब पुरुषवेदके चारों ही स्थितिप्राप्तोंके स्वामित्वका कथन अवसर प्राप्त है, इसलिये उनका स्वामी कौन है ऐसी आशंका करके पुरुषवेदके चारों ही स्थितिप्राप्तोंका भङ्ग क्रोधसंज्वलनके समान है यह कहा है, क्योंकि क्रोधसंज्वलनके कथनसे इस कथनमें कोई विशेषता नहीं है। अब उदयस्थितिप्राप्त स्वामित्वसम्बन्धी विशेषताका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं ___ * किन्तु इतनी विशेषता है कि जो गुणितकर्माशवाला जीव पुरुषवेदका चय कर रहा है वह अपने अन्तिम समयमें उसके उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका उत्कृष्ट स्वामी है। ६६८८. क्रोधसंज्वलनका कथन करते समय क्षपक क्रोधवेदकके अन्तिम समयमें प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है किन्तु यहाँ पर क्षपक पुरुषवेदकके अन्तिम समयमें यह उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यह कहना चाहिये। दूसरे गुणितकौशवाले जीवके इसका उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यहाँ इतनी विशेषता और है। क्रोधसंज्वलनके उदयप्राप्तको गुणितकांश होनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वहाँ उसका उपयोग नहीं है किन्तु यहाँपर गुणितकाशपना उपयोगी ही है, अन्यथा प्रकृत गोपुच्छा स्थूल नहीं हो सकती। * स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। $ ६८६. यह अर्पणासूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त और निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी कौन है । ६६६०. यह पृच्छासूत्र सुगम है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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