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________________ ४२२ काव्वो । जयधवला सहिदे कसायपाहुडे * उदयद्विदिपत्तयमुकस्सयं कस्स ? ६२. इत्थवेदस्से ति अहियार संबधो । सेसं सुगमं । * गुणिदकम्मंसियस्स खवयस्स चरिमसमयइत्थिवेदयस्स तस्स उक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयं । उसी प्रकार वह सबका सब विचार यहाँ भी करना चाहिये । विशेषार्थ - यहाँ पर स्त्रीवेदके यथानिषेक स्थितिप्राप्त और निषेकस्थितिप्राप्त उत्कृष्ट द्रव्य के स्वामीका विचार करते हुए जो यह बतलाया है कि पहले स्त्रीवेद और पुरुषवेदका पुरण करके स्त्रीवेदके उदयके साथ संयत होकर दो बार कषायोंका उपशम करते हुए जब दूसरी बार उपशामना के समय जघन्य स्थितिबन्धकी प्रथम निषेकस्थिति उदयमें आती है तब प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है सो इसका आशय यह है कि सर्वप्रथम यह जीव असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यंच या मनुष्यों में उत्पन्न होवे । फिर वहाँ यथानिषेकका जितना संचयकाल है उसमें से संख्यात अन्तर्मुहूर्त और सोलह वर्ष अधिक एक हजार वर्षसे न्यून काल के शेष रहनेपर स्त्रीवेद और पुरुषवेदका संचय प्रारम्भ करे । और इस प्रकार वहाँकी आयु समाप्त करके दस हजार वर्षकी युवाले देवों में उत्पन्न होवे । फिर वहाँसे च्युत होकर मनुष्य होवे । फिर गर्भसे लेकर आठ वर्ष व्यतीत होनेपर अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त करे । फिर द्वितीयोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके अतिशीघ्र उपशमश्रेणिपर आरोहण करे और वहाँसे च्युत होकर दूसरी बार पुनः उपशमश्रेणिपर आरोहण करे । फिर क्रमसे च्युत होकर और मिथ्यात्वमें जाकर पुनः मनुष्यायुका बन्ध करके दूसरी बार भी मनुष्य होवे और वहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से क्रिया करे । इस प्रकार दूसरी बार उपशामना करनेवाले इस जीवके जब जघन्य स्थितिबन्धकी प्रथम निषेकस्थिति उदयमें आती है तब प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है । यहाँ स्त्रीवेदके संचयके साथ जो पुरुषवेदके सञ्जयका विधान किया है सो इसका फल यह है कि स्तिवुक संक्रमणके द्वारा पुरुषवेदका द्रव्य स्त्रीवेदमें मिल जानेसे स्त्रीवेदकी यथानिषेकस्थिति या निषेकस्थितिका उदयगत उत्कृष्ट संचय बन जाता है । यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार तो नपुंसक वेदका द्रव्य भी मिलता है पर प्रकृत में उसका विधान क्यों नहीं किया सो इसका यह समाधान है कि स्त्रीवेदकी यथानिषेकस्थिति या निषेकस्थितिका उत्कृष्ट सञ्चयकाल असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें व्यतीत होता है और वहाँ नपुंसक वेदका बन्ध नहीं होता, अतः ऐसे जीवके नपुंसकवेदका अधिक समय नहीं पाया जाता । यही कारण है कि प्रकृतमें इसका उल्लेख नहीं किया है । वैसे स्त्रीवेदका उदय रहते हुए इसका द्रव्य भी स्तिवुक संक्रमणके द्वारा स्त्रीवेद में प्राप्त होता रहता है । पर उसकी परिगणना यथानिषेक स्थिति में या निषेकस्थितिमें नहीं की जा सकती। शेष व्याख्यान संज्वलन क्रोध के समान यहाँ भी जानना चाहिये । * उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका उत्कृष्ट स्वामी कौन है । [ पदेसविहत्ती ५ ६ ६६२. इस सूत्र में अधिकार के अनुसार 'इत्थवेदस्स' पदका सम्बन्ध कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है। Jain Education International * जो गुणितकर्माश स्त्रीवेदी क्षपक जीव अपने उदयके अन्तिम समयमें विद्यमान है वह स्त्रीवेद के उत्कृष्ट उदयस्थितिमाप्त द्रव्यका स्वामी है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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