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________________ ४२३ गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं ६६६३. एत्थ गुणिदकम्मंसियणिद्देसो तप्पडिवक्खकम्मंसियपडिसेहमुहेण पयडिगोवुच्छाए थूलभावसंपायणफलो। खवयणिद्दे सो अक्खवयवुदासपओजणो; अण्णत्थ गुणसेढीए बहुत्ताभावादो। चरिमसमयइत्थिवेदयणि सो तदण्णपरिहारदुबारेण गुणसेढिसीसयग्गहणहो । एवंविहस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होइ। 8 एवं णवुसयवेदस्स। ६६४. जहा इथिवेदस्स चउण्हमुक्कस्सद्विदिपत्तयाणं सामित्तपरूवणा कया एवं गqसयवेदस्स वि कायव्वा, विसेसाभावादो। * वरि णवुसयवेदोदयस्से त्ति भाषिव्वाणि । ६ ६६५. एत्य 'णवरि' सद्दो विसेसहसूचओ। को विसेसो ? णqसयवेदस्से त्ति आलावो, अण्णहा पयदुक्कस्ससामित्वविहाणाणुववत्तीदो । ____ एवमुक्कस्सहिदिपत्तयसामित्तं समत्तं । ॐ जहरणाणि हिदिपत्तयाणि कायव्बाणि । ६६६६. सुगममेदं पइज्जामुत्तं । ६६६३. यहाँ सूत्रमें जो 'गुणिदकम्मंसिय' पदका निर्देश किया है सो यह इसके विपक्षी क्षपितकाशके निषेधद्वारा प्रकृत. गोपुच्छाकी स्थूलताको प्राप्त करनेके लिए किया है। 'खवय' इस पदका निर्देश अक्षपकका निराकरण करनेके लिए किया है, क्योंकि गुणश्रेणीके सिवा अन्यत्र बहुत द्रव्य नहीं पाया जाता है। तथा सूत्रमें जो 'चरिमसमयइत्थिवेदय' इस पदका निर्देश किया है सो वह स्त्रीवेदसे भिन्न वेदके निषेधद्वारा गुणश्रेणिशीर्षके ग्रहण करनेके लिये किया है। इस तरह पूर्वोक्त विशेषणोंसे युक्त जो जीव है उसके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है। * इसी प्रकार नपुसकवेदका उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिये । ६ ६९४. जिस प्रकार स्त्रीवेदके चारों ही स्थितिप्राप्तोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार नपुंसकवेदका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। * किन्तु यह उत्कृष्ट स्वामित्व नपुंसकवेदके उदयवाले जीवके कहना चाहिये । ६६६५. इस सूत्रमें जो ‘णवरि' पद है वह भी विशेष अर्थका सूचक है । शंका-वह विशेषता क्या है ? समाधान-यह उत्कृष्ट स्वामित्व नपुंसकवेवालेके ही होता है यह विशेषता है जिसका कथन यहाँ करना चाहिये, अन्यथा प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान नहीं बन सकता है । इसप्रकार उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त द्रव्यके स्वामित्वका कथन समाप्त हुआ। * अब जघन्य स्थितिप्राप्त द्रव्योंका कथन करते हैं । 5 ६६६. यह प्रतिज्ञासूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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