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________________ ४२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सबकम्माणं पि अग्गहिदियपत्तयं जहएणयमेओ पदेसो। तं पुण अण्णदरस्स होज । ६६६७. कथमणंतपरमाणुसमण्णिदस्स अग्गहिदिणिसेयस्स जहण्णेणेओ पदेसोवलंभइ ? ण, प्रोकड्डुक्कड्डणावसेण सुद्धं पिल्लेविजमाणस्स एयपरमाणुमेत्तावहाणे विरोहाभावादो । तं पुण अण्णदरस्स होज, विरोहाभावादो । ६१८. एवं सव्वेसिं कम्माणमग्गहिदिपत्तयजहण्णसामित्तमेकवारेण परूविय संपहि सेसहिदिपत्तयाणं जहण्णसामित्त विहाणहमुवरिमं पब धामाढवेइ । * मिच्छत्तस्स णिसेयहिदिपत्तयमुदयहिदिपत्तयं च जहएणयं कस्स ? * सभी कर्मों के अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य प्रमाण एक परमाणु है और उसका स्वामी कोई भी जीव है। ६६६७. शंका-जब कि अग्रस्थितिप्राप्त निषेक अनन्त परमाणुओंसे बनता है तब फिर उसमें जघन्यरूपसे एक परमाणु कैसे पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षणके कारण उन सबका अभाव होकर एक परमाणु मात्रका सद्भाव माननेमें कोई विरोध नहीं आता है। और इसका स्वामी कोई भी जीव हो सकता है, क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं है। विशेषार्थ—यहाँ सभी कर्मों के अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामीका कथन युगपत् किया है सो इसका कारण यह है कि अपकर्षण कौर उत्कर्षणके कारण अग्रस्थितिमें एक परमाणु रहकर जब वह उदयमैं आता है तब यह जघन्य स्वामित्व होता है और यह स्थिति सभी कर्मों में घटित हो सकती है, अतः सब कर्मों के स्वामित्वको युगपत् कहनेमें कोई बाधा नहीं आती। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि अग्रस्थितिके कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण होता है यह तो ठीक है पर उनका उत्कर्षण कैसे हो सकता है, क्योंकि ऐसा नियम है कि बन्धके समय जिनकी जितनी शक्तिस्थिति पाई जाती है उनका उतना ही उत्कर्षण हो सकता है। किन्तु अग्रस्थितिके कर्म परमाणुओंमें जब एक समय मात्र भी शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती है तब फिर उनका उत्कर्षण होना सम्भव नहीं है । सो इस शंकाका यह समाधान है कि अग्रस्थितिके कर्म परमाणुओंका अपकर्षण होकर पहले उनका नीचेकी स्थितिमें निक्षेप हो जाता है और फिर उत्कर्षण हो जाता है, इस विवक्षासे अग्रस्थितिके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण बन जाता है। इसी कारणसे यहाँ अग्रस्थितिके परमाणुओंके अपकर्षण और उत्कर्षणका विधान किया है। अथवा बन्धके समय जिन कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं हुआ उनकी अग्रस्थितिका शक्तिस्थितिप्रमाण उत्कर्षण हो सकता है, इस अपेक्षासे भी यहाँपर उत्कर्षण घटित किया जा सकता है और इसीलिए यहाँपर उत्कर्षणका विधान किया है। ६६८. इस प्रकार सभी कर्मों के अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामित्वको एक साथ कहकर अब शेष स्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामित्वका कथन करनेके लिए आगेकी रचनाका प्रारम्भ करते हैं * मिथ्यात्वके निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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