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________________ गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं . ४२५ ६६६६. सुगममेदं पुच्छासुत्तं । ® उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयमिच्छाइहिस्स तप्पामोग्गुफास्ससंकिलिहस्स तस्स जहएणयं णिसेयहिदिपत्तयमुदयहिदिपत्तयं च । ६७००. उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयमिच्छाइहिस्स जहण्णयं णिसेयहिदिपत्तयं होइ त्ति एत्थ सुतत्थाहिसंबधो । सो च उवसमसम्माइटी छसु आवलियामु उवसमसम्मत्तद्धाए सेसासु आसाणं गंतूण मिच्छत्तं पडिवण्णो ति घेतवं, अण्णहा उक्कस्ससंकिलेसाभावेणोदीरणाए जहण्णताणुववत्तीदो। सुत्ते असंतमेदं कथमुवलब्भदे ? ण, तप्पाओग्गुकस्ससंकिलिट्ठस्से ति विसेसणेण तदुबलद्धीदो। कथमेदस्स उवसमसम्माइडिपच्छायदपढमसमयमिच्छाइटिणा उवरिमहिदीहितो ओकड्डियउदीरिददबस्स जिसेयहिदिपत्तयत्तं, कथं च ण भवे बधसमयणिसेयमस्सियूण, तस्स पुन्वं समुक्कित्तियत्तादो । ओकड्डणाणिसेयं पि पेक्खियूण ण तस्स वि णिसेयहिदिपत्तयत्तं वोत्तु जुत्तं, तहाब्भुवगमे गुणसेढिसीसओदएण णिसेयहिदिपत्तयस्स उक्स्ससामित्तविहाणाइप्पसंगादो । तदो णेदं सामित्तविहाणं घडइ ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-को ६६६६. यह पृच्छासूत्र सुगम है। * जो उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर तत्मायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे युक्त प्रथम समयवतीं मिथ्यादृष्टि जीव है वह निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी है। ६७००. उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर जो प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव है वह निषेकस्थितिप्राप्तका जघन्य स्वामी होता है इस प्रकार यहाँ पर सूत्रका अथके साथ सम्बन्ध करना चाहिये। किन्तु वह उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलिप्रमाण कालके शेष रहनेपर सासादनमें जाकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा परिणामों में उत्कृष्ट संक्लेशके नहीं प्राप्त होनेसे जघन्य उदीरणा नहीं बन सकती है। शंका-इसका निर्देश सूत्रमें तो किया नहीं है अतः यह अर्थ यहाँ कैसे लिया जा सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि सूत्रमें जो 'तप्पाओग्गुक्कस्ससंकिलिट्ठस्स' यह विशेषण दिया है सो इससे उक्त अर्थका ग्रहण हो जाता है। शंका-जो जीव उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि है वह जिस द्रव्यका ऊपरकी स्थितिमेंसे अपकर्षण करके उंदीरणा करता है वह द्रव्य निषेकस्थितिप्राप्त कैसे हो सकता है और बन्धके समय निषेकमें जो द्रव्य प्राप्त होता है वह निषेकस्थितिप्राप्त कैसे नहीं होता, क्योंकि पहले निषेकस्थितिप्राप्तका इसी रूपसे कथन किया है। यदि कहा जाय कि अपकर्षणसम्बन्धी निषेककी अपेक्षासे उसे निषेकस्थितिप्राप्त कहा जायगा सो ऐसा कान करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर गुणश्रेणिशीर्षके उदयसे निषेकस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान करनेपर अतिप्रसंग दोष आता है, इसलिये यह जो उक्त प्रकारसे स्वामित्वका कथन किया है वह नहीं बनता है ? ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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