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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहन्ती ५ एवं भणइ १ उदीरणादव्वं सव्वमेव पयदजहण्णसामित्त विसईकयमिदि । किंतु तिस्से चैव हिदीए पुन्वमंतरमुकीरमाणीए पदेसग्गमोकड्डियृणुवरिमहिदी समयाविरोहेण पक्खित्तमत्थित्तमेणिमोकड्डिय असंखेज्जळोगपडिभागेणोदयम्मि पुणो चि तत्थेव णिसिंचमाणं पयदजहण्णसामित्त विसईकयमिदि भणामो । तदो णाणंतरुत्तदोसो ति ।
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$ ७०१. संपहि एत्थ पयदसामित्तपडिग्गहिय दव्वपमाणाणुगमं वत्तइस्सामो । तं जहा — मिच्छत्तस्स अंतर अंतर द्विदाहियारद्विदीए अंतरकरणपारंभसमए णाणासमयपबद्धपटिबद्धणिसेए अस्सियूण तप्पा ओग्गमेयसमयपबद्धमेत्तं पदेसम्मत्थितं पुण सव्वं णिसे द्विदिपत्तयं ण होइ, किंतु हेडिमोवरिमहिदीणमुक्कड्डुणोकडणेहि तत्थ संगलिददव्वेण सह समयपबद्धपमाणं होई । पुणो केत्तियमेत्तमंतरकरणपारंभ अहियारद्विदीए णिसेयद्विदिपत्तयमिदि पुच्छिदे तदसंखेज्जदिभागप्रमाणमिदि भणामो ।
समाधान - अब इस शंकाका परिहार करते हैं - प्रकृतमें ऐसा कौन कहता है कि जितना भी उदीरणाका द्रव्य है वह सभी प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विषय है । किन्तु यहाँ हम ऐसा कहते हैं कि पहले अन्तर करनेके लिये उत्कीरणा करते समय उसी स्थितिके द्रव्यका उत्कर्षण करके ऊपरकी स्थितियों में यथाविधि निक्षेप किया गया था अब इस समय असंख्यात लोकका भाग देकर जितना लब्ध हो उतने द्रव्यका अपकर्षण करके उदयगत उसी स्थिति में फिरसे निक्षेप करनेपर वह प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विषय होता है, इसलिये जो दोष पहले दे आये हैं वह यहाँ नहीं प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ - यहाँ पर मिथ्यात्व के निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी बतलाया है । जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके काल में छह आवलि काल के शेष रहनेपर सासादनमें जाता है और तदनन्तर मिध्यात्वमें जाता है उसके प्रथम समय में अपकर्षित होकर जो मिध्यात्वका द्रव्य उदय में आता है वह सबसे कम होता है, इसलिये उदयस्थितिप्राप्तका जघन्य स्वामी यहाँ पर बलताया है। इसी प्रकार निषेकस्थितिप्राप्तका जघन्य स्वामी भी जान लेना चाहिये । किन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि उस समय जितना भी द्रव्य उदय में प्राप्त हुआ है वह सबका सब निषेकस्थितिप्राप्त नहीं कहलाता । किन्तु उसी स्थितिसम्बन्धी जितना भी द्रव्य अपकर्षित हो करके वहाँ पाया जाता है वह निषेकस्थिलिप्राप्त द्रव्य कहलाता है । यतः यह भी जघन्य द्रव्य होता है, इसलिये निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामित्व यहाँ पर दिया है। शेष कथन सुगम है ।
९ ७०१. अब यहाँ पर प्रकृत स्वामित्वकी अपेक्षा द्रव्यप्रमाणका विचार करते हैं। जो इस प्रकार है - अन्तरकरण के प्रारम्भ समय में अन्तर के भीतर जो विवक्षित स्थिति स्थित है उसमें मिथ्यात्वका नाना समयप्रबद्धोंसे सम्बन्ध रखनेवाले निषेकोंकी अपेक्षा तत्प्रायोग्य एक समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्य पाया जाता है परन्तु वह सबका सब निषेकस्थितिप्राप्त नहीं होता हैं । किन्तु नीचेकी स्थितियोंका उत्कर्षण होकर और ऊपरकी स्थितियोंका अपकर्षण होकर वहाँ जो द्रव्यका संकलन होता है उसके साथ वह एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है ।
शंका- तो फिर अन्तरकरण के प्रारम्भ में विवक्षित स्थितिमें निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य कितना
होता है ?
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