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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहसी ५ कालेण सम्मत्तं पडिवण्णो। वेछावहिसागरोवमाणि समयाविरोहेण समत्तमणुपालिय तदवसाणे मिच्छ गदो तस्सावलियमिच्छाइहिस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ । ततो परं सेसकसायाणं समहिदिसंकमेण पडिच्छिदबहुदबावडाणेण जहण्णभावाणुववत्तीदो। ॐ उदयडिदिपत्तयं जहएणयं कस्स ? ६ ७२१. अणताणुबंधिग्रहणमिहाणुवट्टदे । सेसं सुगमं । 8 एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु भागदो। तम्हि संजमासंजमं संजमं च बहुसो लक्ष्ण चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता एइंदिए गयो । असंखेजाणि वस्साणि अच्छियूण उवसामयसमयपबद्ध सु गलिदेसु विसंयोजना करके फिर अन्तर्मुहूर्तमें अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होकर अति स्वल्प कालद्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर दो छयासठ सागर काल तक यथाविधि सम्यक्त्वका पालन करके अन्तमें मिथ्यात्व में गया उसके मिथ्यात्वमें गये एक श्रावलि कालके अन्तमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है। एक आवलि काल के बाद जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं होता इसका कारण यह है कि एक आवलि के बाद शेष कषायोंका समस्थितिसंक्रमण होकर अनन्तानुबन्धीमें बहुत द्रव्य प्राप्त हो जाता है, अतः जघन्यपना नहीं बन सकता। विशेषार्थ-यहाँ अनन्तानुबन्धीके निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी बतलाया है। जिसे यह स्वामित्व प्राप्त कराना है उसका प्रारम्भमें एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाला होना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इससे विसंयोजनाके बाद जब यह जीव अनन्तानुबन्धीसे पुनः संयुक्त होता है तब इसके समस्थितिसंक्रमण अधिक नहीं पाया जाता है। यदि ऐसा न मानकर इसके स्थितिसत्कर्मको संज्ञीके योग्य मान लिया जाता तो इससे निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य बहुत हो जाता और तब उक्त द्रव्य को जघन्य प्राप्त करना सम्भव न होता। यही कारण है कि प्रकृतमें एकेन्द्रियके योग्य जयन्य स्थिति सत्कर्मवाले जीवको ग्रहण करके प्रकृत जघन्य स्वामित्व ग्रहण किया गया है। फिर भी यह वचन उपलक्षणरूप है जिससे यहाँ ऐसा जीव भी लिया जा सकता है जिसका स्थितिसत्कर्म अधिकसे अधिक साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण हो, क्योंकि जिस स्थल पर जाकर जघन्य स्वामित्व प्राप्त करना है उससे एक समय कम स्थितिके रहते हुए संयुक्त अवस्थामें समस्थितिसंक्रमणके द्वारा निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके अधिक होनेका डर नहीं है । शेष कथन सुगम है। * उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है ? ६७२१. इस सूत्रमें 'अणंताणुबंधि' इस पदका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यहाँ उसकी अनुवृत्ति पाई जाती है। शेष कथन सुगम है। * जो कोई एक जीव एकेन्द्रियके योग्य जघन्य सत्कर्म के साथ बसों में आया । वहाँ संयमासंयम और संयमको बहुतबार प्राप्त करके और चार बार कषायोंका उपशम करके एकेन्द्रियों में गया। वहाँ असंख्यात वर्षों तक रहकर उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंके गल जाने पर पंचेन्द्रियों में गया । वहाँ अन्तर्मुहूर्तमें अनन्तानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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