________________
गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
४३९ कालेण संजोएऊण सम्मत्तं पडिवएणो। वेछावहिसागरोवमाणि अणुपालियूण मिच्छत्तं गो तस्स आवलियमिच्छाइहिस्स जहएणयं णिसेयादो अधाणिसेयायो च हिविपत्तयं ।
७२०. एइदियद्विदिसंतकम्मस्स जहण्णयस्सेत्थालंबणमणुवजोगी, अणताणुवंधि विसंजोयणाए णिस्संतीकरिय पुणो पडिवादेण अइरहस्सकालपडिबद्धेण संजोइय पडिवण्णवेदयसम्मत्तम्मि अंतोमुत्तमेत्तणवकबंधं घेतण परिभमिदवेछावहिसागरोवमजीवम्मि सामित्तविहाणादो ? ण एस दोसो, सेसकसायणं जुत्तावत्थाए अधापवत्तेण समद्विदिसंकमबहुत्तणिवारण तदभुवगमादो। ण च समहिदिसंकमस्स जहाणिसेयहिदिपत्तयत्ताभावमवलंबिय पञ्चवह यं, जहाणिसित्तसरूवेण समहिदीए संकेतस्स पदेसगस्स तहाभावाविरोहादो। तम्हा गुणिदकम्मंसिओ वा खविदकम्मंसिओ वा एईदियजहण्णहिदिसंतकम्मेण सह गदो असण्णिपंचिदिएसु तप्पाअोग्गजहण्णंतोमुहुत्तमेत्तनीविएमुववज्जिय समयाविरोहेण देवेसुववण्णो । तदो अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं घेत्तूण अणंताणुबंधिं विसंजोइता पुणो अंतोमुहुत्तेण संजुत्तो होदूण सबरहस्सेण फिर जो सम्यक्त्वसे च्युत होकर और अनन्तानुबन्धीका संयोजन करके अति शीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर जो दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन करके मिथ्यात्वमें गया। उसे वहाँ गए जब एक आवलि काल होता है तब वह जीव जघन्य निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्योंका स्वामी है।
६७२०. शंका-प्रकृतमें एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मका आलम्बन करना अनुपयोगी है, क्योंकि विसंयोजना द्वारा अनन्तानुबन्धीको निःसत्त्व करके फिर सम्यक्त्वसे च्युत होकर और स्वल्प कालद्वारा अनन्तानुबन्धीसे पुनः संयुक्त होकर जो वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है और जिसने अन्तर्मुहूर्तप्रमाण नवक समयप्रबद्धोंको ग्रहण करके दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण किया है उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान किया है। इस शंकाका आशय यह है कि जब कि विसंयोजनाके बाद पुनः संयुक्त होने पर दो छयासठ सागरके बाद प्रकृत जघन्य स्वामित्व कहा है तब इस जीवको प्रारम्भमें एकेन्द्रियके योग्य जघन्य सत्कर्मवाला बतलानेकी कोई आवश्यकता नहीं है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जब यह जीव अनन्तानुबन्धीसे पुनः संयुक्त होता है तब अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा इसमें शेष कषायोंका बहुत समस्थितिसंक्रम न प्राप्त हो एतदर्थ उक्त बात स्वीकार की है।
यदि कहा जाय कि जो शेष कषायोंका समस्थितिसंक्रम हुआ है उसमें यथानिषेकस्थितिपना नहीं पाया जाता है सो ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यथानिषेकरूपसे समस्थितिमें जो द्रव्य संक्रान्त होता है उसे यथानिषेकस्थितिरूप माननेमें कोई बाधा नहीं आती । इसलिये गुणितकमांश या क्षपितकांश जो जीव एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्म के साथ तत्प्रायोग्य जघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुवाले असंज्ञियोंमें उत्पन्न होकर यथाविधि देवोंमें उत्पन्न हुआ। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके और अनन्तानुबन्धीकी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org