SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ * सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं णिसेयादो उदयादो च हिदिपत्तयं कस्स ? ६७१७. सुगममेदं पुच्छासुतं । * उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स तप्पात्रो ग्गुकस्ससंकिलिहस्स। ७१८. सुगममेदं सुतं । * अणंताणुबंधीणं णिसेयादो अधाणिसेयादो च जहएणयं हिदिपत्तयं कस्स ? ६ ७१६. सुगममेदं पुच्छावक्कं । ॐ जो एइंदियढिदिसंतकम्मेण जहएणएण पंचिंदिए गो। अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवएणो । अणंताणुबंधिं विसंजोइत्ता पुणो पडिवदिदो । रहस्स है कि दूसरे छयासठ सागरमें जब अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाय तब इस जीवको सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें ले जाय । और वहाँ जब उसका अन्तिम समय प्राप्त हो तब प्रकृत जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये । सम्यग्मिथ्यात्वका उदय सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है, इसलिये तो इसे उक्त गुणस्थानमें ले गये हैं। तथा सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें जितना स्थान ऊपर जाकर प्रकृत जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है उतने गोपुच्छविशेषोंको कम करनेके लिये यह स्वामित्व सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान के प्रथम समयमें न बतलाकर उसके अन्तिम समयमें बतलाया है । * सम्यग्मिथ्यात्वके निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिद्रव्यप्राप्त द्रव्योंका जघन्य स्वामी कौन है। ६ ७१७. यह पृच्छासूत्र सुगम है। * जो उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर तत्मायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे युक्त प्रथम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है वह उक्त स्थितिप्राप्त द्रव्योंका जघन्य स्वामी है। ६७१८. यह सूत्र सुगम है। विशेषार्थ-इस आशयका सूत्र अनेक बार आ चुका है, इसलिये वहाँ जिस प्रकार वर्णन किया है उसी प्रकार प्रकृतमें भी करना चाहिये। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वका उदय मिश्र गुणस्थानमें ही होता है, इसलिये उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होने पर इस जीवको सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही ले जाना चाहिये, यहाँ इतनी विशेषता है। शेष कथन सुगम है । ___* अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिकस्थितिप्राप्त द्रव्योंका स्वामी कौन है ? ६७१६. यह पृच्छासूत्र सुगम है। * जिसने एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मके साथ पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होकर और अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy