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________________ ४३७ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं $ ७१५. संपहि सम्मत्तस्स जहाणिसे यहिदिपत्तयभंगेण सम्मामिच्छत्तजहाणिसेयहिदिपत्त यस्त सायित्त परूवणं कुणमाको सुत्त मुत्तरं भगइ * सम्मत्तस्स जहाणो जहाणिसेओ जहा परूविप्रो तीए चेव परूवणाए सम्मामिच्छत्त गयो। तदो उकस्सियाए सम्मामिच्छत्तद्धाए चरिमसमए जहग्गयं सम्मामिच्छत्तस्स अधातिसेयहिदिपत्तयं ।। F ७१६. सम्मत्तस्स जहण्णओ जहाणिसे ओ जहापरूविदो, तीए चेव परूवणाए अणूमाहियाए सम्मामिच्छत्तस्प्त वि पयदनहष्णसामियो परूवेयव्यो । णवरि सव्वुकस्ससम्मत्तद्धाए चरिमसमए सम्मत्तस्स णिरुद्ध जहण्णसामित्तं जादं । एवमेत्थ पुग विदियछावाहिकालभंतरे अंतोमुहुत्तावसेसे सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णस्स तप्पाओग्गुकस्संतोमुहुत्तमेत्तसम्मामिच्छ नद्धाए चरिमसमयम्मि पयदजहण्णसामितं होइ त्ति एतिओ चेव विसेसो। रहने पर सासादनमें ले जाकर फिर मिथ्यात्वमें ले जाया गया था और तब मिथ्यात्वके प्रथम समयमें उक्त जघन्य स्वामित्व प्राप्त कराया गया था। किन्तु समयक्त्वका उदय मिथ्यात्व गुणस्थानमें सम्भव नहीं है, इसलिये जिस जीवको सम्यक्त्वकी अपेक्षा निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्रात द्रव्यका जघन्य स्वामित्व प्राप्त कराना हो उसे उपशमसम्यक्त्वका काल पूरा होनेपर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशनके साथ वेस्कसम्यक्त्वमें ले जाय । इस प्रकार जब यह जीव वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है तब इसके उक्त वेदकसम्यक्त्वके प्रथम समय में जवन्य स्वामित्व होता है। यहाँ सम्यक्त्वकी कम से कम उदीरणा प्राप्त करने के लिये तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशके साथ वेदकसम्यक्त्व प्राप्त कराया गया है । $ ७१५. अब सम्यक्त्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामित्वके समान ही सम्यग्मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जवन्य स्वामित्व है यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं- * सम्यक्त्वके जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यकी जिस प्रकार प्ररूपणा की है उसी प्ररूपणाके अनुसार कोई एक जीव सम्पग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। फिर जब वह सम्यम्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट कालके अन्तिम समयमें विद्यमान रहता है तब वह सम्यग्मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी है। $७१६. जिस प्रकार सम्यक्त्वके जघन्य यथानिषेक द्रव्यका प्ररूपण किया, न्यूनाधिकतासे रहित उसी प्ररूपणाके अनुसार सम्यग्मिथ्यात्वके प्रकृत जघन्य स्वामित्वका भी कथन करना चाहिये । किन्तु इतनो विशेषता है कि सम्यक्त्वके सर्वोत्कृष्ट कालके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वका प्रकृत जघन्य स्वामित्व प्राप्त हुआ था। किन्तु यहाँ पर दूसरे छयासठ सागरके भीतर अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहने पर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीव के सम्यग्मिथ्यात्वके तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तिम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है, इतनी ही विशेषता है। विशेषार्थ-सम्यग्मिथ्यात्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामित्वको प्राप्त करने के लिये और सब विधि सम्यक्त्व प्रकृतिके समान जानना चाहिये । किन्तु यहाँ इतनी विशेषता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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