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________________ ४३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ अक्खीणदसणमोहचरिमसमयम्मि तिसु वि हिदीसु सम्मत्त सरुवेणुदयमागदासु जहण्णय. मधाणिसेयहिदिपत्तयं होइ, चरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीयस्सेव चरिमसमयसम्माइटि ति मुत्ते विवक्खियत्तादो। ॐ णिसेयादो च उदयादो च जहण्णयं हिदिपत्तयं कस्स ? ६७१३. एत्थ सम्मत्तस्से त्ति अहियारसंबंधो । सुगममण्णं । 8 उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयवेदयसम्माइहिस्स तप्पाओग्गउकस्ससंकिलिहस्स तस्स जहरणयं । ६ ७१४. एदस्स मुत्तस्स मिच्छत्तसामित्तसुत्तस्सेव गिरवयवा अत्थपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो। एत्तिओ पुणो विसेसो-तत्थ पढमसमयमिच्छाइहिस्स सामित्तं जादं, एत्थ पढमसमयवेदयसम्माइहिस्से त्ति । स्थितियों के सम्यक्त्वरूप से उदय में आनेपर जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य होता है। यहाँ सूत्र में जो 'चरिमसमयसम्माइटिस्प्स' पद दिया है सो इससे दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला अन्तिम समयवर्ती जीव ही विवक्षित है। विशेषार्थ-यहाँ सम्यक्त्वके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी बतलाया है। सो इसे प्राप्त करनेके लिये और सब विधि तो मिथ्यात्वके समान है किन्तु इतनी विशेषता है कि जब उक्त जीवको सम्यक्त्व के साथ दूसरे छयासठ सागरमें परिभ्रमण करते हुए अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाय तब उससे क्षायिकसम्यग्दर्शनकी प्राप्ति करावे और ऐसा करते हुए जब सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयका अन्तिम समय प्राप्त होता है तब यथानिषेकस्थितिप्राप्तका जयन्य द्रव्य होता है। * सम्यक्त्वके निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है ? ६७१६. इस सूत्रमें 'सम्मत्तस्स' इस पदका अधिकारवश सन्बन्ध होता है। शेष कथन सुगम है। * जो उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे युक्त प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीव है वह उक्त दोनों स्थितिमाप्त द्रव्योंका जघन्य स्वामी है। ६७१४. जिस प्रकार मिथ्यात्वविषयक स्वामित्व सूत्रका सर्वांगीण कथन किया है उसी प्रकार इस सत्रका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि इन दोनोंके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वविषयक स्वामित्वका कथन करते समय प्रथम समयवती मिथ्यादृष्टिके स्वामित्व प्राप्त कराया गया था किन्तु यहाँ पर वह प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिके प्राप्त कराना चाहिये। विशेषार्थ-आशय यह है कि मिथ्यात्यकी अपेक्षा निषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामित्व लाने के लिये जीवको उपशमसम्यक्त्वसे छह आवलिकालके शेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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