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________________ ४४१ गा० २२ } पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं पंचिंदिएसु गदो। अंतोमुहुत्तेण अणंताणुबंधि विसंजोजित्ता तदो संजोएऊण जहएणएण अंतोमुहुत्तण पुणो सम्मत्तं लद्धण वेछावहिसागरोवमाणि अणंताणुबंधिणो गालिदा । तदो मिच्छत्त गदो तस्स आवलियमिच्छाइहिस्स जहण्णयमुदयहिदिपत्तयं ।। ६ ७२२. ण एत्थ पुणो वि विसंजोइजमाणाणमणताणुबंधीणं खविदकम्मंसियत्तं णिरत्थयमिदि आसंकणिज्जं, संजुतावत्थाए सेसकसाएहितो पडिछिन्जमाणदव्वस्स जहण्णीकरणेण फलोवलंभादो। तम्हा जो जीवो एइदियजहण्णपदेससंतकम्मेग सह तसेसु आगदो । तत्थ य संनमासंजमादीणमसई लभेण चदुक्खुत्तो कसायाणमुवसामगाए च गुणसे विसरूवेण बहुदव्वगालणं काऊण पुणो एइदिएम पलिदोवमासंखेजभागमेनकालमच्छिय गिग्गालिदोवसामयसमयपबद्धो समयाविरोहण पंचिंदिरसुववज्जिय अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तग्गहणपुरस्सरमणंताणुबंधि विसंजोइय संजुत्तो सबलहं सम्मतपडिलंभेण वेछावहिसागरोवमाणि अधहिदीए गालिय पडिवदिदो तस्स आवलियमिच्छाइहिस्स पयदजहण्णसामिन होइ ति सिद्धं । वन्धीकी विसंयोजना करके तदनन्तर उससे संयुक्त हो जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा फिरसे सम्यक्त्वको प्राप्त करके दो छयासठ सागर काल तक अनन्तानुबन्धियोंको गलाता रहा । तदनन्तर मिथ्यात्वमें गया। उसे वहाँ गये जब एक आवलि काल होता है तब वह उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी है। ७२२. यदि यहाँ ऐसी आशंका की जाय कि जब अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना होनेवाली है तब उन्हें पूर्व में ही क्षपितकांश बतलाना निरर्थक है तो ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि संयुक्त अवस्थामें अनन्तानुबन्धीमें शेष कषायोंका द्रव्य जघन्य होकर प्राप्त होता है, इसलिये इसकी सफलता है। अतः जो जीव एकेन्द्रियके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोंमें आया और वहाँ संयमासंयमादिककी अनेकबार होनेवाली प्राप्ति द्वारा और चार बार हुई कषायोंकी उपशामना द्वारा गुणश्रेणिरूपसे बहुत द्रव्यको गलाकर फिर एकेन्द्रियोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहकर और वहाँ उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंको गलाकर यथाविधि पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। फिर अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको ग्रहण करके अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना की। फिर उससे संयुक्त होकर और अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त करके अधःस्थिति द्वारा दो छयासठ सागरप्रमाण स्थितियोंको गलाकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ उसके मिथ्यात्वको प्राप्त हुए एक आवलि कालके होने पर प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है यह बात सिद्ध होती है। विशेषार्थ—यहाँ पूर्वमें क्षपितकाशकी विधि बतलाकर फिर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कराई गई है। इस पर शंकाकारका यह कहना है कि जब आगे चलकर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होनेवाली ही है तब पूर्व में क्षपितकमांशपनेके विधान करनेकी क्या सफलता है । इसका जो समाधान किया है उसका आशय यह है कि क्षपितकाशकी विधि अन्य कषायों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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