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________________ ३५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ॐ अरदि-सोगाणमोकड्डणादितिगझीणहिदियं जहएणयं कस्स ? ५७०. सुगमं! 8 एइंदियकम्मेण जहएणएण तसेसु आगदो। संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धण तिणि वारे कसाए उवसामेयूण एइंदिए गदो । तत्थ पलिदोवमस्स असंखेज दिमागमच्छियूण जाव उवसामयसमयबद्धा गलंति तदो मणुस्सेसु आगदो । तत्थ पुव्वकोडी देसूणं संजममणुपालियूण कसाए उवसामेयूण उवसंतकसानो कालगदो देवो तेत्तीससागरोवमित्रो जादो। जाधे चेय हस्सरईओ प्रोकड्डिदाओ उदयादिणिक्खित्तानो अरदि-सोगा ओकड्डित्ता अधिक नहीं हो सकता। पर इस उत्तर पर यह शंका होती है कि यह नियम तो अनुदयवाली प्रकृतियों के सम्बन्धमें है उदयवाली प्रकृतियोंके सम्बन्धमें नहीं, क्योंकि उदयवाली प्रकृतियोंमें अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप उदय समयसे प्राप्त होता है, इसलिये पूर्वोक्त शंकासे मूल शंकाका निराकरण न होकर वह पूर्ववत् खड़ी रहती है, इसलिये इस अन्तर्वती शंकाको ध्यानमें रखकर समाधानमें दूसरी बात यह कही गई है कि इस प्रकार अपकर्षण होकर जिस द्रव्यका उदयावलिमें निक्षेप होता है वह द्रव्य एक गोपुच्छविशेषके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिये उसकी यहाँ प्रधानता नहीं है। असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो एक भागप्रमाण द्रव्य प्राप्त होता है उतने अपकर्षित द्रव्यका उदयावलिके अन्दर निक्षेप होता है। यह तो अपकर्षित द्रव्यका प्रमाण है। तथा दो गुणहानि आयामका भाग देनेपर गोपुच्छविशेष अर्थात् चयका प्रमाण प्राप्त होता है। सर्वत्र एक गुणहानिका काल पल्यके. असंख्यातवें भागप्रमाण है। इससे स्पष्ट है कि एक गोपुच्छविशेषसे उदयावलिमें प्राप्त होनेवाले अपकर्षित द्रव्यका प्रमाण असंख्यातगुणा हीन होता है, इसलिये वह यहाँ प्रधान नहीं है। यही कारण है कि उत्कृष्ट संक्लेशसे निवृत्त होनेके प्रथम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व न कहकर एक आवलिकालके अन्तिम समयमें कहा है। * अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा अरति और शोकके झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी कौन है । ६५७०. ग्रह सूत्र सुगम है। * जो जीव एकेन्द्रियोंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोंमें उत्पन्न हुआ। फिर संयमासंयम और संयमको अनेक बार प्राप्त करके और तीन बार कषायोंका उपशम करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। वहाँ उपशामकके समयप्रवद्धोंके गलनेमें लगनेवाले पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक रहा । फिर आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । वहाँ कुछ कम एक पूर्वकोटि कालतक संयमका पालन करके और कषायोंको उपशमा कर उपशान्तकषाय गुणस्थानको प्राप्त हुआ। फिर मरकर तेतीस सागरकी आयुवाला देव हुआ। और जब देव हुआ तब हास्य और रतिका अपकर्पण करके उनका उदय समयसे निक्षेप किया तथा अरति और शोकका अपकर्षण करके उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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