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________________ ४४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ 8 जहणणयं णिसेयहिदिपत्तयं अणंतगुणं । ६ ७३६. कुदो ? अणंतपरमाणुपमाणत्तादो । ॐ जहएणयमुदयहिदिपत्तयमसंखेजगुणं । ६ ७४०. कथमेदेसिमुवसमसम्माइद्विपच्छायदपढमसमयमिच्छाइहिणोदीरिदासंखेजलोगपडिभागियदव्वपडिबद्धत्तेण समाणसामियाणमण्णोण्णमवेक्खिय असंखेजगुणहीणाहियभावो त्ति णासंकणिज्जं, समाणसामियत्ते वि दवविसेसावलंबणेण तहाभावाविरोहादो । तं जहा-णिसेयहिदिपत्तयस्स अहियारहिदीए अंतरं करेमाणेण उवरिमुकड्डिदपदेसा पुणो संकिलेसवसेणासंखेजलोगपडिभाएणोदीरिदा सामित्तविसईकया उदयादो जहण्णहिदिपतयस्स पुण अंतोकोडाकोडीमेत्तोवरिमासेसहिदीहितो ओकड्डिय उदीरिदसव्वपरमाणु सामित्तपडिग्गहिया · तदो जइ वि एकम्मि चे उद्देसे दोण्हं सामित्तं संजादं तो वि णाणेयणिसेयपडिबद्धत्तेण असंखेजगुणहीणाहियभावो ण विरुज्झदे । एत्थ गुणयारोकड्डुक्कड्डणभागहारोवट्टिददिवडगुणहाणिवग्गमेत्तो । ~~~~~~~~~~ * उससे जघन्य निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य अनन्तगुणा है । $ ७३९. क्योंकि इसका प्रमाण अनन्त परामाणु है। * उससे जघन्य उदयस्थितिप्राप्त द्रव्य असंख्यातगुणा है। ६७४०. शंका-जब कि उपशमसम्यक्त्वसे पीछे आकर प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात लोकका भाग देकर जितने द्रव्यकी उदीरणा करता है उसकी अपेक्षा इन दोनोंका स्वामी समान है तब फिर इनमेंसे एकको असंख्यातगुणा हीन और दूसरेको असंख्यातगुणा अधिक क्यों बतलाया है ? समाधान-ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि इनका स्वामी समान है तथापि द्रव्यविशेषकी अपेक्षा ऐसा होनेमें कोई विरोध नहीं आता। खुलासा इस प्रकार है-निषेकस्थितिप्राप्तकी अपेक्षासे अन्तरको करनेवाले जीवके द्वारा विवक्षित स्थितिके जिन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण करके ऊपर निक्षेप किया है उनमेंसे संक्लेशके कारण असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने वे ही कर्मपरमाणु उदीर्ण होकर स्वामित्वके बिषयभूत होते हैं । किन्तु जघन्य उदयस्थितिप्राप्तकी अपेक्षा तो अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण ऊपरकी सब स्थितियोंमेंसे अपकर्षण होकर उदीरणाको प्राप्त हुए सब परमाणु स्वामित्वरूपसे स्वीकार किये गये हैं, इसलिये यद्यपि एक ही स्थलपर दोनों स्थितिप्राप्त द्रव्योंका स्वामित्व होता है तो भी एक स्थितिप्राप्तमें नाना निषेकोंके कर्मपरमाणु हैं और दूसरेमें एक निषेकके कर्मपरमाणु हैं, इसलिए इनके परस्परमें असंख्यातगुणे अधिक और असंख्यातगुणे हीन होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। यहाँ पर अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका डेढ़ गुणहानिके वर्गमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना गुणकारका प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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