SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं ॐ एवं चेव मायासंजलणस्स । णवरि मायाहिदिकंडयं चरिमसमयअसंछुहमाणयस्स तस्स चत्तारि वि उकस्सयाणि झीणहिदियाणि । ५१२. सुगम । लोहसंजलणस्स उकस्सयमोकडणादितिण्हं पि झीणहिदियं कस्स? $ ५१३. सुगममेदं पुच्छासुत्तं । ॐ गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंसकम्ममावलियं पविस्समाणयं पविद्ध ताधे तस्स उक्कस्सयं तिण्हं पि झीणहिदियं । ५१४. एत्थ गुणिदकम्मंसियणिद्दे सो तविवरीयकम्मंसियणिवारणफलो । तं पि कुदो ? गुणिदकम्मंसियादो अण्णत्थ पदेससंचयस्स उक्कस्सभावाणुववत्तीदो । * इसीप्रकार मायासंज्वलनका कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जिसने मायास्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें उसका पतन नहीं किया है वह चारोंकी ही अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट परमाणुओंका स्वामी है। $ ५१२. यह सूत्र सुगम है। विशेषार्थ-पहले जैसे क्रोधसंज्वलनके अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण और उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंके स्वामीका कथन कर आये हैं वैसे ही मानसंज्वलन और माया संज्वलनकी अपेक्षा भी जानना चाहिये। यदि उक्त कथनसे इसमें कोई विशेषता है तो वह इतनी ही कि क्रोधसंज्वलनके वेदककालमें उस प्रकृतिकी अपेक्षासे कथन किया था किन्तु यहां मानसंज्वलन और मायासंज्वलनके वेदककालमें इनकी अपेक्षा कथन करना चाहिये। _* लोभसंज्वलनके अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ? ६५१३. यह पृच्छासूत्र सुगम है। * जिस गुणितकर्माश जीवके सब सत्कर्म जब क्रमसे एक आवलिके भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं तब वह अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है । ६५१४. यहाँ सूत्रमें 'गुणितकमांश' पदका निर्देश इससे विपरीत काशके निवारण करने के लिये किया है। शंका-ऐसा करनेका क्या प्रयोजन है ? समाधान--क्योंकि गुणितकाशके सिवा अन्यत्र कर्मपरमाणुओंका उत्कृष्ट संचय नहीं हो सकता। बस यही एक प्रयोजन है जिस कारणसे इस सूत्रमें 'गुणितकांश' पदका निर्देश किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy