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________________ ३१० जयधवलाहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ विसोहीए बहुअस्स गुणसेढिदवस्स संगहह। दुचरिमसमयादिहेडिमापुवकरणणिवारणफलो चरिमसमयअपुवकरणणिद्देसो । तस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होइ। तत्तो उवरि बहुदवावूरिदगुणसेढिणिसेए उदिण्णे सामित्तं किण्ण दिणं ? ण, तत्थेवेदेसिमुदयवोच्छेदेण उवरि दादुमसत्तीदो। उवसमसेडीए अणियट्टिउवसामओ से काले अंतरं काहिदि ति मदो देवो जादो तस्स अंतोमुहुत्तुववण्णल्लयस्स जाधे अपच्छिमं गुणसेढिसीसयमुदयमागयं ताधे छण्हमेदेसि कम्मंसाणं पयदुक्कस्ससामित्तं दायव्यमिदि णासंकणिजं, तत्थतणविसोहीदो अणंतगुणवसंतकसायुक्कस्सविसोहिं पेक्खियूण सव्वजहणियाए वि अपुवकरणक्खवयविसोहीए अणंतगुणत्तुवलंभादो । एत्थेव विसेसंतरपदुप्पायणहमुत्तरसुतं * गवरि हस्स-रह-अरह-सोगाणं जइ कीरइ भय-दुगुंछाणमवेदगो समाधान—क्योंकि उपशामककी विशुद्धिसे क्षपककी विशुद्धि अनन्तगुणी होती है जिससे गुणश्रेणि द्रव्यका अधिक संचय होता है। यही कारण है कि यहाँ उपशामक पदका निर्देश न करके क्षपक पदका निर्देश किया है। यहाँ अपूर्वकरणके उपान्त्य समय आदि पिछले समयोंका निषेध करनेके लिये 'चरिमसमयअपुव्वकरण' पदका निर्देश किया है, क्योंकि प्रकृत विषयका उत्कृष्ट स्वामित्व इसीके होता है। शंका_अपूर्वकरणके अन्तिम समयसे आगे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें जिसमें बहुत द्रव्यका संचय है ऐसे गुणश्रेणिनिषेकका उदय होता है, अतः इस उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान वहाँ जाकर करना चाहिये था ? समाधान नहीं, क्योंकि अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें ही इन प्रकृतियोंकी उदयव्युच्छित्ति हो जाती है, अतः उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान आगे नहीं किया जा सकता। शंका–उपशमश्रेणिमें अनिवृत्तिकरण उपशामक तदनन्तर समयमें अन्तर करेगा . किन्तु अन्तर न करके मरा और देव हो गया। उसके वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद जब अन्तिम गुणश्रेणिशीर्ष उदयमें आता है तब इन छह कर्मों के प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान करना चाहिये ? समाधान-ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि उपशामक अनिवृत्तिकरणमें अन्तरकरण करनेके पूर्व जितनी विशुद्धि होती है उससे उपशान्तकषायकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है और इससे भी क्षपक अपूर्वकरणकी सबसे जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी बतलाई है। इसीसे इन छह कर्मों के प्रकृत उस्कृष्ट स्वामित्वका विधान अन्यत्र न करके क्षपक अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें किया है। अब इस विषयमें जो विशेष अन्तर है उसका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * किन्तु इतनी विशेषता है कि हास्य, रति, अरति या शोकका यदि कर रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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