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________________ गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणझीणचूलियाए सामित्तं ३११ कायव्यो । जइ भयस्स तदो दुगुंछाए अवेदगो कायव्यो । अह दुगुंछाए तदो भयस्स अवेदगो कायव्यो । ६५३१. कुदो एवं कीरदे ? ण, अविवक्खियाणं णोकसायाणमवेदगते त्थिवुक्कसंकममस्सियाणं विवक्खियपयडीणमसंखेजसमयपबद्धमेत्तगुणसेढिगोवुच्छदव्वस्स लाइदंसणादो। ५३२. संपहि पयदस्स उपसंहरणहमुत्तरमुत्तमोइण्णं* उकस्सयं सामित्तं समत्तमोघेण । है तो उसे भय और जुगुप्साका अवेदक रखना चाहिये। यदि भयका कर रहा है तो उसे जुगुप्साका अवेदक रखना चाहिये और जुगुप्साका कर रहा है तो भयका अवेदक रखना चाहिये। ६५३१. शंका-इस व्यवस्थाके करनेका क्या कारण है ? समाधान-नहीं, क्योंकि यदि यह जीव अविवक्षित नोकषायोंका अवेदक रहता है तो इसके विवक्षित प्रकृतियोंमें स्तिवुक संक्रमणके द्वारा असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण गुणश्रेणिगोपुच्छाके द्रव्यका लाभ देखा जाता है । विशेषार्थ-यहाँ पर गुणितकांश क्षपक जीवके अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व बतलाया है सो इसका कारण यह है कि छह नोकषायोंका उदयगत उत्कृष्ट द्रव्य वहीं पर प्राप्त होता है अन्यत्र नहीं। यद्यपि शंकाकार यह समझकर कि अपूर्वकरणसे अनिवृत्तिकरणमें अधिक द्रव्यका संचय होता है ऐसे जीवको अनिवृत्तिकरणमें ले गया है और वहाँ नोकषायोंका उदय न होनेसे उद्यगत उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त करनेके लिये उसे देवपर्यायमें उत्पन्न कराया है। किन्तु उपशमश्रेणिसे उपशान्तकषाय गुणस्थानमें और इससे क्षपक जीवके परिणामोंकी विशुद्धि अनन्तगुणी होती है, इसलिये गुणश्रेणिका उत्कृष्ट संचय क्षपक अपूर्वकरणमें ही होगा। यही कारण है कि उत्कृष्ट स्वामित्वका प्रतिपादन अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें किया है। तथापि ऐसा नियम है कि किसीके भय और जुगुप्सा दोनोंका उदय होता है। किसीके इनमेंसे किसी एकका उदय होता है और किसीके दोनोंका ही उदय नहीं होता। इसलिये यदि हास्य, रति, अरति या शोककी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कहना हो तो दोनोंके उदयके अभावमें कहना चाहिये। यदि भयकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कहना हो तो जुगुप्साके अभावमें कहना चाहिये और जुगुप्साकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व कहना हो तो भयके अभावमें कहना चाहिये। ऐसा करनेसे लाभ यह है कि जब जिस प्रकृतिका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त किया जायगा तब उसे जिन प्रकृतियोंका उदय न होगा, स्तिवुक संक्रमणके द्वारा उनका द्रव्य भी मिल जायगा। $ ५३२. अब प्रकृत विषयका उपसंहार करनेके लिये आगेका सूत्र आया है* इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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