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________________ १८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहन्ती ५ २६. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-सतणोकसाय. जह० पदे० जहण्णुक्क० एगसमओ। अज० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोक्माणि । सम्मत्त-सम्मामि०. अणंताणु० चउकाणं जह० पदे. जहण्णुक्क० एगस० । अज. जह० एगसमओ, उक० तेत्तीसं सागरो० । बारसक०-भय-दुगुंछाणं जह० पदे. जहण्णुक० एगस० । अज. ज० दसवस्ससहस्साणि समयूणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । अनादि-अनन्त और इतर भव्योंकी अपेक्षा अनादि-सान्त कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं। इनका सत्त्व होकर क्षपणा द्वारा कमसे कम अन्तर्मुहूर्तमें अभाव हो सकता है और जो प्रारम्भमें, मध्यमें और अन्तमें इनकी उद्वेलना करते हुए दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहता है उसके साधिक दो छयासठ सागर काल तक इनका सत्त्व देखा जाता है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर कहा है। इनका सत्त्व अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त नहीं होता, इसलिए ये दो भङ्ग नहीं कहे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्क अनादि सत्तावाली होकर भी विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त ये तीन भङ्ग कहे हैं। तथा सादि-सान्तके कालका निर्देश करते हुए वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहा है, क्योंकि विसंयोजनाके बाद अन्तर्मुहूतके लिए इनकी सत्ता होकर पुनः विसंयोजना हो सकती है। तथा उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलप्रमाण कहा है, क्योंकि कोई जीव इस कालके प्रारम्भमें और अन्तमें इनकी विसंयोजना करे और मध्यमें न करे यह सम्भव है। लोभकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके भी तीन भङ्ग हैं। अनादि-अनन्त भङ्ग अभव्योंके होता है। अनादि-सान्त भङ्ग भव्योंके जघन्य प्रदेशविभक्तिके पूर्व होता है और सादि-सान्त भङ्ग जघन्य प्रदेशविभक्तिके बादमें होता है। इसकी जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपक जीवके अधःकरणके अन्तिम समयमें होती है। इसके बाद इसका सत्त्व अन्तर्मुहूत काल तक ही पाया जाता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। २६. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और सात नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। विशेषार्थ-मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्ति नारक पर्यायमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर हो यह भी सम्भव है, इसके बाद इनकी वहाँ अन्तर्मुहूर्त काल तक अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। तथा क्षपितकशिविधिसे आकर नरकमें उत्पन्न हुए जिसे अन्तर्मुहूर्त काल हो जाता है उसके पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है और इससे पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल तक अजघन्य प्रदेशविभक्ति रहती है, इसलिए इन सब प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। सम्यक्त्व आदि छह प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय अनुत्कृष्टके समान घटित कर लेना चाहिए । बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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