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________________ १७ mov गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए कालपरूवग्णा ६२५. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-एकारसकसाय-णवणोकसाय० जहण्णपदे जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अजहण्णे० अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिनो सपज्जवसिदो। सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं जहण्णपदे जहण्णुक० एगसमओ। अजह० ज० अंतोमु०, उक्क० वेछावहि सागरोवमाणि सदिरेयाणि । अणंताणु०चउक्क० ज० पदेस. जहणुक० एगस० । अज० अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो। जो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिद्देसो-जह० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसणं । लोभसंजल. जह• पदे० जहण्णुक० एगस । अज० तिण्णि भंगा। जो सादिओं' सपज्जवसिदो तस्स जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । विसंयोजना किये बिना वहाँ उत्पन्न हुआ है और अन्तर्मुहूर्त कालमें उनकी विसंयोजना कर देता है उसके इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति अन्तर्मुहूर्त काल तक ही देखी जाती है, इसलिए इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। क्षपणाकी अपेक्षा सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय यहाँ भी सम्भव होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। इन सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। इस प्रकार यहाँ तक अोघसे और चारों गतियों में कालका विचार किया। आगे अपनी अपनी विशेषताको जानकर वह घटित कर लेना चाहिए । इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ। , २५. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकपायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त काल है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त काल है। उनमें जो सादि-सान्त काल है उसका यह निर्देश है-जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। लोभसंज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिके तीन भङ्ग हैं। उनमें जो सादि-सान्त भङ्ग है उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ— अपने अपने स्वामित्वके अनुसार ओघ और आदेशसे सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति एक समय तक ही होती है, इसलिए उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल सर्वत्र एक समय कहा है। अतः यहाँ केवल सब प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके कालका विचार करें गे। मिथ्यात्व आदि इक्कीस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इसका काल अभव्यों या अभव्योंके समान भव्योंकी अपेक्षा १. ता० प्रतौ 'जो सो सादियो' इति पाठः । दिया इात पाठ.. .. . .. . .. .. . . . . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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