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________________ ३६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ समुक्कित्ति होइ । एवमेदेसिमुकस्सादिहि दिपत्तयाणमत्थित्तमेत्तमेदेण सुत्तेण समुक्कित्तिय संपदि तेसिं चेव सरूवविसए णिण्णयजणणहमपदं परूवेमाणो उकस्स डिदिपत्तयमेव ताव पुच्छासुत्तेण पत्तावसरं करेइ * उक्कस्सयडिदिपत्तयं णाम किं । ९ ६००. उकस्सद्विदिपत्तयसरूववि से सावहारणपरमेदं पुच्छासुतं । संपहि एदिस्से पुच्छाए उत्तरमाह * जं कम्मं बंधसमयादो कम्मद्विदीए उदए दीसह तमुक्कस्सहिदिपत्तयं । ६०१. एतदुक्तं भवति - जं कम्मपदेसग्गं बंध समयादो पहुडि कम्मद्विदिमेतकालमच्छियूण सगकम्पद्विदिचरिमसमए उदए दीसह तमुक्कस्सद्विदिपत्तयमिदि भण्णदे, अगदी माणतादो ति । णाणासमयपबद्धे अस्सियूण किरण घेप्पदे ? ण, तेसिमकमेण अग्गद्विदिपत्तयत्तासंभवादो । बंधसमए चेव किण्ण घेष्पदे १ ण, चउन्ह पि हिदिपत्तयाणमुदयं पेक्खियूण गहणादो । तत्थ वि ण चरिमणिसेयपरमाणू सुद्धा मुकस्स द्विदिपत्तयसण्णा, किंतु पढमणिसेयादिपदेसाणं पि तत्थुक्कडिदा - सूत्र द्वारा इन उत्कृष्ट आदि स्थितिप्राप्त कर्मपरमाणुओं का अस्तित्वमात्र बतलाकर अब उनके स्वरूपके विषय में विशेष निर्णय करनेके लिये अर्थपदका कथन करते हुए पृच्छासूत्र द्वारा सर्वप्रथम उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तके निर्देशकी ही सूचना करते हैं * उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त किसे कहते हैं । $ ६०० उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तके स्वरूप विशेषका निश्चय करानेवाला यह पृच्छासूत्र है । अब इस पृच्छाका उत्तर कहते हैं * जो कर्म बन्धसमय से लेकर कर्मस्थिति के अन्तमें उदयमें दिखाई देता है वह उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त है । § ६०१. इस सूत्रका यह अभिप्राय है कि जो कर्मपरमाणु बन्ध समयसे लेकर कर्मस्थितिप्रमाण कालतक रहकर अपनी कर्मस्थितिके अन्तिम समय में उदयमें दिखाई देता है वह उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कर्म कहलाता है, क्योंकि वह स्थिति में विद्यमान रहता है । शंका- यह उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कर्म नाना समयप्रबद्धों की अपेक्षा क्यों नहीं लिया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि नाना समयप्रबद्धों का एक साथ अग्रस्थितिको प्राप्त होना सम्भव नहीं है। शंका- उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तका बन्ध समय में ही क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है ? समाधान — नहीं, क्योंकि चारों ही स्थिति प्राप्त कर्मों का उदयकी अपेक्षा ग्रहण किया है। उसमें भी केवल अन्तिम निषेकके परमाणुओंोंकी यह उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त संज्ञा नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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