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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए समुक्कि तणा ३६९ मेसा सण्णा ति घेत्तव्वं, अण्णहा उकस्सयसमयपबद्धस्स अग्गहिदीए जत्तियं णिसित्तं तत्तियमुक्कस्सेणे ति भणिस्समाणपरूवणाए सह विरोहप्पसंगादो । ण च चरिमणिसेयस्सेव अणणाहियस्स जहाणिसित्तसरूवेणोदयसंभवो, अोकड्डिय विणासियत्तादो। तम्हा एयसमयपबद्धणाणाणिसेयावलंबणेण पयदहिदिपत्तयमवहिदमिदि सिद्ध। ..................wwwwwwwwwwww किन्तु प्रथम निषेक आदिके जिन परमाणुओंका उत्कर्षण होकर वहाँ निक्षेप हो गया है उनकी भी यही संज्ञा है ऐसा अर्थ यहाँपर लेना चाहिये । यदि यह अर्थ न लिया जाय तो 'एक समयप्रबद्धकी अग्रस्थितिमें जितना द्रव्य निक्षिप्त होता है उतना द्रव्य उत्कृष्ट रूपसे अग्रस्थितिप्राप्त है। यह जो सूत्र आगे कहा जायगा उसके साथ विरोध प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि न्यूनाधिकताके बिना अन्तिम निषेकका ही बन्धके समय जैसा उसमें कर्मपरमाणुओंका निक्षेप हुआ है उसी रूपसे उदय होना सम्भव है सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अपकर्षण होकर उसका विनाश देखा जाता है। इस लिये एक समयप्रबद्धके नाना निषेकोंके अवलम्बनसे ही प्रकृत स्थितिप्राप्त अवस्थित है यह बात सिद्ध होती है । विशेषार्थ-प्रदेशसत्कर्मका विचार करते हुए उत्कृष्टादिकके भेदसे उनका बहुमुखी विचार किया। उसके बाद यह भी बतलाया कि, सत्तामें स्थित इन कर्मो मेंसे कौन कर्मपरमाणु अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण और उदयके योग्य है और कौन कर्मपरमाणु इनके अयोग्य हैं। किन्तु अब तक यह नहीं बतलाया था जि इन सत्तामें स्थित कर्मपरमाणुओंके उदयकी अपेक्षा कितने भेद हो सकते हैं ? क्या जिन कर्मों का जिस रूपमें बन्ध होता है उसी रूप में वे उदयमें आते हैं या उनमें हेर फेर भी सम्भव है। यदि हेर फेर सम्भव है तो उदयकी अपेक्षा उसके कितने प्रकार हो सकते हैं ? प्रस्तुत प्रकरणमें इसी बातका विस्तारसे विचार किया गया है। यहाँ ऐसे प्रकार चार बतलाये हैं-उत्कृष्टस्थितिप्राप्त, निषेकस्थितिप्राप्त, यथानिषेकस्थितिप्राप्त और उदयस्थितिप्राप्त । इनमेंसे प्रत्येकका खुलासा चूर्णिसूत्रकारने स्वयं किया है, इसलिये यहाँ हम सबके विषयमें निर्देश नहीं कर रहे हैं। प्रकृतमें उत्कृष्टस्थितिप्राप्त विचारणीय है। चूर्णिसूत्र में इस सम्बन्धमें इतना ही कहा है कि बन्धसमयसे लेकर कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें जो उदयमें दिखाई देता है वह उत्कृष्टस्थितिप्राप्त कर्म है। इस परसे अनेक शंकाएँ पैदा होती हैं ? कि क्या उस अग्रस्थितिमें नाना समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणु लिये जा सकते हैं यह पहली शंका है। इसका समाधान नकारात्मक ही होगा, क्योंकि नाना समयप्रबद्धोंकी अग्रस्थिति एक समयमें नहीं प्राप्त हो सकती।। दूसरी शंका यह पैदा होती है कि बन्धके समय ही उत्कृष्टस्थितिप्राप्त यह संज्ञा न देकर जब वह अग्रस्थिति उदयगत होती है तभी उत्कृष्टस्थितिप्राप्त यह संज्ञा क्यों दी गई है ? इसका समाधान यह है कि ये संज्ञाएँ उदयकी अपेक्षासे ही व्यवहृत हुई हैं, इसलिये जब अग्रस्थिति उदयगत होती है तभी उत्कृष्टस्थितिप्राप्त इस संज्ञाका व्यवहार होता है। तीसरी शंका यह है कि बन्धके समय जिन कर्मपरमाणुओंमें उत्कृष्ट स्थिति पड़ती है वे ही केवल उकृष्ट स्थितिके उदयगत होनेपर उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कहलाते हैं या उत्कर्षण द्वारा उसी समयप्रबद्धकी अन्य स्थितियोंमें स्थित कर्मपरमाणुओंके भी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करके उत्कृष्ट स्थितिके उदयगत होनेपर वे कर्मपरमाणु भी उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कहलाते हैं ? इसका समाधान यह है कि अग्रस्थितिमें बन्धके समय जितने भी कर्मपरमाणु प्राप्त होते हैं अपनी स्थितिके अन्त समय तक वे वैसे ही नहीं बने रहते हैं। यदि स्थितिकाण्डकघात और संक्रमणकी चर्चाको छोड़ दिया जाय, क्योंकि वह चर्चा इस प्रकरणमें उपयोगी नहीं है तो भी बहुतसे कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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