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________________ ३५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ थिवुक्कसंकमेण जहण्णताणुववत्तीदो । ® एवमोघेण सव्वमोहणीयपयडीणं जहण्णमोकडणादिझीणदियसामित्तं परविदं । ६ ५७५. एत्तो एदेण सूचिदासेसपरूवणा चोद्दसमग्गणापडिबद्धा अजहण्णसामित्तपरूवणाए समयाविरोहेणाणुमग्गियव्वा । तदो सामित्ताणियोगद्दारं समत्तं । 8 अप्पाबहुअं। $ ५७६. अहियारसंभालणमुत्तमेदं । 8 सव्वत्थोवं मिच्छत्तस्स उकस्सयमुदयादो झीणहिदियं । ६ ५७७. कुदो १ एदस्स चेव उदयणिसेयस्स एकलग्गीभूदसंजदासंजद-संजदगुणसेडिसीसयस्स गुणिदकम्मंसियपयडिगोवुच्छसहगदस्स गहणादो । * उकस्सयाणि ओकडणादो उक्कड्डणादो संकमणदो च झीणजाता तो प्रकृत निषेकके ऊपर भय और जुगुप्साके गोपुच्छोंका स्तिवुक संक्रमण होते रहनेसे जघन्य स्वामित्व नहीं प्राप्त हो सकता था। विशेषार्थ—उक्त कथनका सार यह है कि जो क्षपितकाशवाला जीव पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य होकर संयमका पालन करे और अन्तमें देव होकर पयोप्त हो जानेपर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हो। फिर अन्तर्महतं तक रति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता हुआ विवक्षित निषेकको सूक्ष्म करनेके लिये उत्कर्षण करे। फिर जब वह उत्कृष्ट संक्लेशसे च्युत होकर तबसे एक प्रावलि कालके अन्तमें स्थित होता है और भय तथा जुगुप्साके उदयसे भी युक्त रहता है तब उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है। * इस प्रकार ओघसे अपकर्षणादि चारोंकी अपेक्षा मोहनीयकी सब प्रकृतियोंके झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी कहा। ६५७५. आगे इससे सूचित होनेवाली चौदह मार्गणासम्बन्धी समस्त प्ररूपणा अजघन्य स्वामित्वसम्बन्धी प्ररूपणाके साथ आगमके अनुसार जान लेनी चाहिए। ___ इस प्रकार स्वामित्व अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । * अब अल्पबहुत्वका अधिकार है। $ ५७६. अधिकारकी सम्हाल करनेके लिये यह सूत्र आया है। * मिथ्यात्वका उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला उत्कृष्ट द्रव्य सबसे थोड़ा है। ६५७७. क्योंकि यहाँ मिथ्यात्वका ऐसा उदय निषेक लिया गया है जो गुणितकांशकी प्रकृतिगोपुच्छाके साथ संयतासंयत और संयतके युगपत् प्राप्त हुए गुणश्नेणिशीर्षरूप है । * मिथ्यात्वके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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