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________________ ३५७ गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए अप्पाबहुअं हिदियाणि तिषिण वि तुल्लागिण असंखेजगुणाणि । ६५७८. किं कारणं ? समयूणावलियमेत्तदंसणमोहक्खवणगुणसे ढिगोवुच्छपमाणत्तादो। एत्थ गुणगारपमाणं तप्पाओग्गपलिदोरमासंखेज्जदिभागमेत्तं । कुदो ? संजमासंजम-संजमगुणसेढीहिंतो दसणमोहक्खवणगुणसेढीए असंखेजगुणत्तदंसणादो । ॐ एवं सम्मामिच्छत-पएणारसकसाय-छण्णोकसायाणं । ५८९. जहा मिच्छत्तस्स चउण्हं पदाणं थोवबहुत्तगवेसणा कया एवमेदेसि पि कम्माणमुक्कस्सप्पाबहुअपरिक्खा कायव्वा, विसेसाभावादो।। * सम्मत्तस्स सव्वत्थोवमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं । ५८०. चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहगीयसव्वपच्छिमगुणसेढिलीसयस्स गहणादो। 8 सेसाणि तिगिण वि झीणहिदियाणि उक्कस्सयाणि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । ६५८१. कुदो तत्तो एदेसि विसेसाहियत्तं ? ण, समयूणावलियमेतदुचरिमादिगुणसेढिदव्वस्स तदसंखेजदिभागस्स तत्थ पवेसुवलंभादो। उत्कृष्ट द्रव्य ये तीनों परस्पर तुल्य होते हुए भी उससे असंख्यातगुणे हैं । ६५७८. इसका क्या कारण है ? क्योंकि वह एक समय कम एक श्रावलिप्रमाण दर्शनमोहकी क्षपणासम्बन्धी गुणश्रेणिगोपुच्छाप्रमाण है। यहाँ गुणकारका प्रमाण तत्प्रायोग्य पल्यका असंख्यातवाँ भाग लेना चाहिये, क्योंकि संयमासंयम और संयमकी गुणश्रेणियोंसे दर्शनमोहकी क्षपणासम्बन्धी गुणश्रेणि असंख्यातगुणी देखी जाती है। * इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और छह नोकपायोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व है। ६ ५७९. जैसे मिथ्यात्वके चार पदोंके अल्पबहुत्वका विचार किया वैसे ही उक्त कर्मों के भी उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका विचार करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। * सम्यक्त्वका उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला उत्कृष्ट द्रव्य सबसे थोड़ा है। ६५८०. क्योंकि जिसने दर्शनमोहनीयकी पूरी क्षपणा नहीं की है उसके अन्तिम समयमें जो सबसे अन्तिम गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य विद्यमान रहता है उसका यहाँ ग्रहण किया गया है। * सम्यक्त्वके शेष तीनों ही झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट द्रव्य परस्पर तुल्य होते हुए भी उससे विशेष अधिक हैं । ६५८१. शंका-उससे ये विशेष अधिक क्यों हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि द्विचरम समयसे लेकर एक समय कम एक आवलिप्रमाण द्रव्यका यहाँ प्रवेश पाया जाता है जो कि पूर्वोक्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये इसे विशेष अधिक कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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