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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ 8 एवं लोभसंजलण-तिषिणवेदाणं । ५८२. जहा सम्मत्तस्स अप्पाबहुअं परूविदमेवं लोभकसाय-संजलणतिवेदाणमणूणाहियं परूवेयव्वं, विसेसाभावादो। एवमुक्कस्सप्पाबहुअमोघेण समत्तं । एत्थादेसपरूवणा च जाणिय कायव्वा । तदो उकस्सयं समत्तं । * एत्तो जहण्णयं झीणहिदियं । $ ५८३. एत्तो उवरि जहण्णझीणहिदियस्स अप्पाबहुअं भणिस्सामो त्ति पइज्जामुत्तमेदं । * मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवं जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं । ५८४. कुदो ? सासणपच्छायदपढमसमयमिच्छादिहिणो ओदारियावलियमेत्तसण्हयाणं गोवुच्छाणं चरिमणिसेयस्स पयदजहण्णसामित्तविसईकयस्स गहणादो । ॐ सेसाणि तिगिण वि झीणहिदियाणि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि । ६५८५. कुदो ? संपुण्णावलियमेत्ताणमुदीरणागोवुच्छाणमिह गहणादो । को गुणगारो ? आवलिया सादिरेया । सेसं सुगमं । एदेणेव गयत्थाणमप्पणं करेइ * इसी प्रकार लोभसंज्वलन और तीन वेदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व है। ६५८२. जिस प्रकार सम्यक्त्वका अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार लोभसंज्वलन और तीन वेदोंका न्यूनाधिकताके बिना अल्पबहुत्व कहना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। यहाँ आदेश प्ररूपणाको जानकर उसका कथन करना चाहिये । तब जाकर उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त होता है। * इससे आगे जघन्य झीनस्थितिके द्रव्यका अल्पबहुत्व बतलाते हैं । ६ ५८३. अब इस उत्कृष्ट अल्पबहुत्वके बाद झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका अल्पबहुत्व कहते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञा सूत्र है । * मिथ्यात्वका उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाला उत्कृष्ट द्रव्य सबसे थोड़ा है। $५८४. क्योंकि सासादन गुणस्थानसे पीछे लौटकर प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके जो उदयावलि संज्ञावाला गोपुच्छाएँ हैं उनमेंसे यहाँ पर प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विषयभूत अन्तिम निषेक लिया गया है। * मिथ्यात्वके शेष तीनों ही झीनस्थितिवाले द्रव्य परस्परमें तुल्य होते हुए भी उससे असंख्यातगुणे हैं। ६५८५. क्योंकि यहाँ पर सम्पूर्ण श्रावलिप्रमाण उदीरणा गोपुच्छाओंका ग्रहण किया गया है। शंका-गुणकारका क्या प्रमाण है ? समाधान-साधिक एक श्रावलि गुणकारका प्रमाण है। शेष कथन सुगम है। अब इसीसे जिन प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ज्ञात हो जाता है उसका प्रमुखतासे निर्देश करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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