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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए मीणाझीणचूलियाए सामित्तं
३५५ अरदि-सोगाणं जहएणयमुदयादो झीणहिदियं ।
५७४. एदस्स मुत्तस्स अवयवत्थपरूवणा सुगमा । णवरि अपडिवदिदेण सम्मत्तेण० एवं भणिदे तत्थ पुवकोडिं संजमगुणसेढिमणुपालिय तदवसाणे मिच्छत्तमगंतूण सो संजदो अपडिवददेणेव तेण सम्मत्तेण कप्पवासियदेवेसुववण्णो त्ति भणिदं होइ । किमहमेसो गqसय-इत्थिवेदसामिओ व्व मिच्छत्तं ण णीदो त्ति ? ण, तत्थ मिच्छत्तं गच्छमाणस्स गुणसेढिणिज्जरालाहस्स असंपुण्णत्तप्पसंगादो गुणसेढिणिज्जराए संपुण्णत्तविहाण सणमोहणीयं खविय तत्थुप्पाइज्जमाणत्तादो च ण मिच्छत्तमेसो णेदु सक्किन्जदे । अंतोमुहुत्त उववण्णो उक्स्ससंकिलेसं गओ ति भणिदे छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो होऊणुक्कस्ससंकिलेसेण आवृरिदो ति वुत्तं होइ । संकिलेसावूरणे पयोजणमाह-अंतोमुहुत्तमुक्कस्सहिदि बंधियूणे त्ति । उक्कस्ससंकिलेसाणुक्कस्सहिदिमरदि-सोगाणं बंधमाणो णिरुद्ध हिदिमाबाहापविद्वत्तादो आयविरहियमुक्कड्डणाए सण्हीकरिय पुणो उक्कस्ससंकिलेसक्खएण पडिभग्गो जादो त्ति संबंधो कायव्यो । एत्थावलियपडिभग्गस्स सामित्त विहाणे पुवपरूविदं कारणं, तस्सेव विसेसणंतरमाह-भय-दुगुंछाणं वेदयमाणस्से त्ति, अण्णहा पयदणिसेयस्सुवरि भय-दुगुंछगोवुच्छाणं हुआ वह जीव उदयकी अपेक्षा अरति और शोकके झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी है।
६५७४. इस सूत्रके सब पदोंका कथन सुगम है। किन्तु सूत्रमें जो 'अपडिवदिदेण सम्मत्तेण' इत्यादि कहा है सो इसका यह अभिप्राय है कि मनुष्य पर्यायमें कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक संयमसम्बन्धी गुणश्रेणिका पालन करके उसके अन्तमें मिथ्यात्वमें न जाकर वह संयत संयमसे च्युत हुए बिना ही सम्यक्त्वके साथ कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ।
बांका-जैसे नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके स्वामीको मिथ्यात्वमें ले गये हैं वैसे ही इसे मिथ्यात्वमें क्यों नहीं ले गये हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वमें ले जाने पर गुणश्रेणिनिर्जराका पूरा लाभ नहीं प्राप्त होता है। दूसरे पूरी गुणश्रेणिनिर्जराके प्राप्त करनेके लिये दर्शनमोहनीयकी क्षपणा कराके इसे वहाँ उत्पन्न कराया है, इसलिये इसे मिथ्यात्वमें ले जाना शक्य नहीं है।
सूत्रमें जो 'अंतोमुहुत्तउववण्णो उकस्ससंकिलेसं गओ' यह कहा है सो इसका यह अभिप्राय है कि छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होकर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ । उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होनेका प्रयोजन बतलानेके लिये सूत्र में 'अंतोमुहुत्तमुक्कस्सट्ठिदिं बंधियूण' यह कहा है। इसका प्रकृतमें ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये कि उत्कृष्ट संक्लेशसे अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाला यह जीव आबाधाके भीतर प्रविष्ट होनेके कारण आयसे रहित विवक्षित स्थितिको उत्कर्षणके द्वारा सूक्ष्म करके फिर उत्कृष्ट संक्लेशका क्षय हो जानेसे उससे निवृत्त हुआ। यहाँ निवृत्त होने पर एक आवलिके अन्तमें जो स्वामित्वका विधान किया है सो इसका कारण तो पहले कह आये हैं किन्तु यहाँ पर उसका दूसरा विशेषण बतलानेके लिये सूत्रमें 'भयदुगुंछाणं वेदयमाणस्स' यह कहा है। यदि यहाँ इन दो प्रकृतियोंका वेदक नहीं बतलाया
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