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________________ F जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ १७०, पयडिविसेसस्स तारिसत्तादो । * पुरिसवेद उक्कस्सपद ससंतकम्म' विसेसाहिय । $ १७१. अपविक्खत्तणेण धुवबंधिणो भयस्स निरंतरसंचिदुकस्सदव्वादो सप्प विक्खपुरिस वेदपदेसग्गस्स कथं विसेसाहियत्तं ? ण, एदस्स वि सोहम्मे पलिदो - वमाद्विदिअब्भंतरे सम्मत्तगुणपाहम्मेण असवत्तस्स धुवबंधित्तेण पूरणुवलंभादो | ण चणिरयाईए इदमसिद्धं, सव्वलहुएण कालेन अविणणेय तेण संचिददव्वेण णेरइएसुप्पण्णपढमसमए तस्सिद्धीदो । एवमवि' दोन्हं धुवबंधीणं पदेसग्गेण सरिसेण होदव्यमिदि वो जुत्तं पयडिविसेसेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेयखंडमेण उवसमसेटीए गुणसंकमभागहारेण पडिच्छिदणोकसायदव्यमेतेण च पुरिसवेदस्स विसेसाहियत्तवलंभादो । * माणसंजलणे उक्कस्सपद ससंतकम्म विसेसाहियं । $ १७२, कुदो ? पुरिसवेदभागादो माणसंजलणस्स भागस्स चउब्भाग [ पदेसविहत्ती ५ $ १७०. क्योंकि प्रकृति विशेष होनेसे यह इसी प्रकारकी है। * उससे पुरुषवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । $ १७१. शंका - भय अप्रतिपक्ष और ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है, अतः निरन्तर सचित हुए उसके उत्कृष्ट द्रव्यसे सप्रतिपक्षरूप पुरुषवेदका प्रदेशसमूह विशेष अधिक कैसे अधिक हो सकता है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि सौधर्म कल्पमें आयुकी एक पल्यप्रमाण स्थिति के भीतर सम्यक्त्व गुणकी प्रधानता से प्रतिपक्ष रहित इस प्रकृतिमें भी ध्रुवबन्धीरूपसे प्रदेशों की पूर्ति उपलब्ध होती है । यदि कहा जाय कि नरकगतिमें यह असिद्ध है सो भी बात नहीं है, क्योंकि अतिशीघ्र कालके द्वारा इस प्रकार सञ्चित हुए द्रव्यको नष्ट किये बिना जो नारकियों में उत्पन्न होता है उसके वहां उत्पन्न होनेके प्रथम समय में उसकी सिद्धि होती है । शंका- --इस प्रकार होने पर भी दोनों ही ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का प्रदेशसमूह समान होना चाहिए ? समाधान -यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि एक तो प्रकृतिविशेष होनेके कारण आवलिके असंख्यातवें भागसे भयका द्रव्य भाजित होकर जो एक भाग लब्ध आवे उतना पुरुषवेदमें विशेष अधिक द्रव्य उपलब्ध होता है । दूसरे उपशमश्रेणिमें गुणसंक्रमभागहारके द्वारा aavrrier द्रव्य इसमें संक्रान्त हो जानेसे भी इसका द्रव्य विशेष अधिक उपलब्ध होता है । इसलिए ध्रुवबन्धिनी होते हुए भी इन दोनों प्रकृतियोंका द्रव्य एक समान नहीं है । -- Jain Education International * उससे मानसंज्वलनमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । $ १७२. क्योंकि पुरुषवेदके भागसे मानसंज्वलनका भाग एक चौथाई अधिक उपलब्ध ६. आ०प्रतौ 'एदमवि' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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