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________________ २८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४४. आदेसेण णेरइएमु मिच्छ०-बारसक०-छण्णोक० उक्क० पदे० पत्थि अंतरं । अणुक्क० पदे. जहण्णुक्क० एगस० । सम्म० सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० उक्क० पदे० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । इत्थि-पुरिस-णqसयवेदाणमुक्कस्साणुकस्सपदे० पत्थि अंतरं । एवं सत्तमाए पुढवीए। समय है। विशेषार्थ-गुणितकशिविधि एक बार समाप्त होकर पुनः उसके प्रारम्भ होने में अनन्त काल लगता है, इसलिए यहाँ मिथ्यात्व आदि सत्रह प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। तथा मिथ्यात्व आदि सत्रह प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति एक समयके लिए होती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चार संज्वलन और पुरुषवेदकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल एक समय कहनेका यही कारण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक उपाध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण काल तक सत्त्व न पाया जाय यह सम्भव है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उपाध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क ये विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं। इनका सत्त्व अधिकसे अधिक कुछ कम दो छयासठ सागर काल तक नहीं पाया जाता, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । सम्यक्त्व और सम्यम्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व दर्शनमोहकी क्षपणाके समय तथा पुरुषवेद और चार संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व चारित्रमोहकी क्षपणाके समय होता है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल न प्राप्त होनेसे उसका निषेध किया है। ४४. श्रादेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकपायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-नरकमें गुणितकांश जीवके भवमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर मिथ्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। यह वहाँ एक पर्यायमें दो बार सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है । सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालके निषेधका यही कारण है। तथा सम्यक्त्व और तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। अब रहा अनुत्कृष्टका विचार सो मिथ्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति यतः मध्यमें होती है अतः इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है। सम्यक्त्वद्विक उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं और अनन्तानुबन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं। यहाँ इनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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