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________________ मा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूवणा ४५. पढमाए जाव छडि ति मिच्छ०-बारसक०-णवणोक० उक्कस्साणुक्कस्सपदे० पत्थि अंतरं। सम्म०-सम्मामि० उक्क० पदे० णत्थि अंतरं । अणुक्क० पदे० जह० एगस०, उक्क० सगसगहिदीओ देसूणाओ। अणंताणु०चउक्क० उक्क० पदे० पत्थि अंतरं । अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । ४६. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छ० बारसक०-अट्ठणोक० उक्कस्साणुकस्सपदे० पत्थि अंतरं । सम्म-सम्मामि० ओघं । अणंताणु०चउक्क० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह• अंतोमु०, उक० तिण्णि पलिदोक्माणि देसणाणि। इत्थिवेद. सत्त्व कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागर तक न हो यह सम्भव है, अतः यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । मात्र सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश विभक्ति मध्यमें होती है, इसलिए भी इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना एक समयके लिए नहीं होती, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षासे ही प्राप्त करना चाहेए। तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका भी निषेध किया है। यह सब अन्तर प्ररूपणा सातवें नरकमें अविकल बन जाती है, इसलिए वहाँ सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। ४५. प्रथमसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकपायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-यहाँ मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल न प्राप्त होनेसे उसका निषेध किया है। मात्र विसंयोजनाकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बन जाता है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालका अलगसे विधान किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म एकबार ही प्राप्त होता है, इसलिए इसके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा यह आयुमें अन्तर्मुहूर्त जाने पर प्राप्त होता है और ये उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और उद्वेलना प्रकृतियाँ होनेसे वहाँ इनका कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण काल तक सत्त्व न रहे यह सम्भव है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। ४६. तिर्यञ्चगतिमें तियञ्चोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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