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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ उक्क० पत्थि अंतरं । अणुक्क० जहण्णुक० एगस० । एवं पंचिंदियतिरिक्रवतियस्स । णवरि सम्म० सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० एगस०, उक० तिणि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । पंचिंदियतिरिक्ख अपज्ज. अहावीसं पयडीणमुक्कस्साणुक० पत्थि अंतरं । ४७. मणुसगदीए मणुस्सेसु मिच्छ०-अहकसाय-णस०-हस्स-रदि-अरदिसोग-भय दुगुंडाणं उकस्साणुकस्स० पत्थि अंतरं। सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० पंचिंदियतिरिक्वभंगो। चदुसंजल०-पुरिस०--इत्थिवेद० उक्क० पत्थि अंतरं । अणुक० जहण्णुक० एगस० । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीणं । मणुसअपज्ज. पंचिंदियप्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। इसीप्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथकत्व अधिक तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रिय तियश्च अपर्याप्तकों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ- यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। ओघमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तरकालका जो भङ्ग कहा है वह यहाँ अविकल बन जाता है, इसलिए उसे ओघके समान जाननेकी सूचना की है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल सम्भव नहीं है यह गुणितकाशविधिके देखनेसे स्पष्ट हो जाता है। पर ये विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। यहाँ स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व भोगभूमिमें पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण कालजाने पर होता है, इसलिए इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है। इसकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें यह अन्तरप्ररूपणा घटित हो जाती है, इसलिए उनमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र इन तिर्यञ्चोंकी कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्यप्रमाण है, इसलिए इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण प्राप्त होने यहाँ इनकी अपेक्षा अन्तरकालका अलगसे निर्देश किया है। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें प्राप्त होती है, इसलिए यहाँ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। ४७. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मिथ्यात्व, आठ कषाय, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । चार संज्वलन, पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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