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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूवणा ॐ अंतरं जहणणयं जाणिदूण णेदव्यं । ४१. एदस्स सुत्तस्स अत्यो सुगमो, जहण्णपदेसविहत्तियाणं सव्वेसि पि अंतराभावादो। एबमंतरं समतं । ४२. संपहि चुण्णिसुत्तेण देसामासिएण सूइदमत्थमुच्चारणाइरिएण परूविदं वत्तइस्सामो । अपुणरुत्तत्थो चेव किण्ण वुच्चदे ? ण, कत्थ वि चुण्णिसुत्तेण उच्चारणाए भेदो अस्थि त्ति तब्भेदपदुप्पायणदुवारेण पउणरुत्तियाभावादो। ४३. अंतरं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सयं च । उकस्सए पयदं । दुविहो णिद्दे सोओघेण श्रादेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-अट्टक० अहणोक० उक्क० पदेस-विहत्तिअंतरं जहण्णुक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मत्त ०-सम्मामि० उक्क० पदेसविह० णत्थि अंतरं । अणुक० पदे० जह० एगस०, उक्क० उघडपोग्गलपरियट्ट । अणंताणु० चउक्क० उक० पदे. जहण्णुक्क० अणेत०मसंखे०पो०परियहा । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरोवमाणि देसणाणि । पुरिसवेद-चदुसंज० उक्क० पदे णत्थि अंतरं । अणुक्क० पदे. जहण्णुक्क० एगस० । 8 जघन्य अन्तरकाल भी जानकर ले जाना चाहिए। ___६ ४१. इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि सभी जघन्य प्रदेशविभक्तियोंका अन्तरकाल नहीं उपलब्ध होता। इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ। ६ ४२. अब चूर्णिसूत्रके द्वारा देशामर्षकरूपसे सूचित हुए जिस अर्थका उच्चारणाचार्यने कथन किया है उसे बतलाते हैं। शंका-अपुनरुक्त अर्थको ही क्यों नहीं कहते ? समाधान नहीं, क्योंकि कहीं पर चूर्णिसूत्रसे उच्चारणामें भेद है, इसलिए उस भेदके कथन द्वारा पुनरुक्त दोष नहीं आता। अर्थात् उसके पुनः कथन करने पर भी वह अपुनरुक्तके समान हो जाता है। ४३. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओषसे मिथ्यात्व, आट कपाय और आठ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ठ अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण है। पुरुषवेद और चार संज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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