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________________ १८६ जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ असंखे० गुणा । एवं सव्वणेरइय० - तिरिक्ख पंचिं० तिरिक्खतिय- देवा जाव उवरिमगेवज्जा त्ति । पंचिं० तिरिक्ख अपज्ज० एवं चेत्र । णवरि पुरिस० इत्थिवेदभंगो । सम्मतसम्मामि० णत्थि अप्पा बहुअं । $ ३५४, मणुसगदी • मणुसाणमोघं । मणुसपज्ज० एवं चेव । एवं मणुसिणीसु । वरि पुरिस० सव्त्रत्थोवं उक्क० अवद्वाणं । हाणी असंखे० गुणा | वड्डी असंखे० गुणा | मणुसअपज्ज० पंचिदियतिरि० अपज्जत्तभंगो । अणुदिसादि जाव सव्वहा त्ति बारसक०पुरिस०-भय- दुगुंछा० सव्वत्थोवा उक्क० बड्डी अवद्वाणं | हाणी असंखे० गुणा । मिच्छत्त-सम्मत-सम्मामि० - अनंताणु ४ - इत्थि - णवुंस० णत्थि अप्पाबहु । हस्स-रइअरइ- सोगाणं सव्वत्थो० उक्क० वड्डी । हाणी असंखे० गुणा । एवं जाव अणाहारि ति । ३५५. जण्णए पदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक० - पुरिसवेद-भय-दुर्गुछा० जहण्णवडी हाणी अवद्वाणं सरिसं । सम्म०सम्मामि० सव्वत्थो ० जह० हाणी | वड्डी असंखे० गुणा । इत्थिवेद - णवुंस ० - चदुणोक० जहण्णवडी हाणी सरिसा । एवं सव्वणेर० - सव्वतिरिक्ख सव्वमणुस देवा जाव उवरिमगेवज्जा त्ति । णवरि पंचिदियतिरिक्ख अपज्ज० पुरिस० इत्थवेदेण सह भाणिदव्वा । एवं मणुस० अपज्ज० । णवरि उहयत्थ वि सम्मत्त सम्मामि० अप्पाबहुअं असंख्यातगुणी है । इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर उपरिम प्रवेयक तक के देवोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में इसी प्रकार भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है । $ ३५४. मनुष्यगति में मनुष्यों में ओघके समान भङ्ग है । मनुष्य पर्याप्तकों में इसी प्रकार भ है। इसी प्रकार मनुष्यिनियों में है । इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है। उससे उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भंग है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है । मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, और नपुंसकवेदका अल्पबहुत्व नहीं है । हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। $ ३५५. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । घ मिध्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान समान हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है । उससे जघन्य वृद्धि असंख्यातगुणी है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद् और चार नोकपायोंकी जघन्य वृद्धि और हानि समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और समान्य देवोंसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में पुरुषवेदको स्त्रीवेदके साथ कहलाना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना जाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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