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गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं
६ ७२८. जहा बारसकसायाणं तिण्ह पि हिदिपत्तयाणं जहण्णसामित्तं परूविदं तहा एदेसि पि कम्माणं परूवेयव्वं, विसेसाभावादो ।
8 इत्थि-णवु सयवेद-अरदि-सोगाणमधाणिसेयादो जहएणयं हिदिपत्तयं जहा संजलणाणं तहा कायव्वं ।
७२६. अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णपदेससंतकम्मेण सह तसकाइएसुप्पाइय आबाहाचरिमसमए सामित्तविहाणेण विसेसाभावादो ।
* जम्हि अधाणिसेयादो जहएणयं द्विदिपत्तयं तम्हि चेव णिसेयादो जहएणयं हिदिपत्तयं ।
$ ७३०. सुगममेदमप्पणासुतं, पुविल्लादो अविसिपरूवणत्तादो ।
8 उदयहिदिपत्तयं जहा उदयादो झीणहिदियं जहएणयं तहा णि रवयवं कायव्वं । $ ७३१. सुगममेदमप्पणासुत्तं ।
एवं जहण्णसामित्तं समत्तं ।
६७२८. जिस प्रकार बारह कषायोंके तीनों ही स्थितिप्राप्त द्रव्योंके जघन्य स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार पूर्वोक्त कर्मों के विषयमें भी जानना चाहिये, क्योंकि इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
* स्त्रीवेद, नपुसकवेद, अरति और शोकके जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका कथन संज्वलनोंके समान करना चाहिए।
७२६. क्योंकि दोनों स्थलोंमें अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्म के साथ त्रसकायिकोंमें उत्पन्न होकर आबाधाके अन्तिम समयमें स्वामित्वका विधान किया है, इसलिए उनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
* उक्त कर्मोंका जिस स्थलपर जघन्य यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य होता है उसी स्थलपर जघन्य निपेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका भी कथन करना चाहिये।
६७३०. यह अर्पणासूत्र सुगम है, क्योंकि इसका व्याख्यान पूर्वोक्त सूत्रके व्याख्यानके समान है।
* तथा उक्त कर्मों के जघन्य उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका सम्पूर्ण कथन उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यके समान करना चाहिये । ६ ७३१. यह अर्पणासत्र सुगम है।
इम प्रकार जघन्य स्वामित्वका कथन समाप्त हुआ।
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