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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
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[ पदेसविहत्ती ५ उकडणाणिबंधणलास्स तोमुहुत्तपडिबद्धस्स तत्थ दंसणादोति जाणावणहमेदमोइणं 'तत्थ तप्पा ओग्गमुकस्सहिदिं बंधमाणस्स' इच्चादि । तत्थुप्पण्णपढमसमए चेव तप्पा ओग्गुकस्ससंकिलेसेण तप्पा ओग्गुकस्सद्विदिमंतोमुहुत्तमाचाहं काऊण बंध | एवं बंधमाणस जदेही एसा तप्पा ओग्गुक्कस्सिया आवाहा तेत्तियमेत्तकालमुक्कड्डणाए वावदस्य तस्स तावदिमसमयतसस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ त्ति एसो एदस्स भावत्थो, उवरि समितात्रिहाणं पि तत्थ तसकाइयणवगबंधस्सावद्वाणादो | एत्थ संचयादिपरूवणा जाणिय कायव्वा ।
* एवं पुरिसवेद-हस्स रद्द-भय दुगंछाणं ।
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सो ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक अन्तर्मुहूर्त काल तक होनेवाला उत्कर्षणनिमित्तक लाभ वहाँ देखा जाता है । और इसी बात के बतलानेके लिये सूत्र में 'तत्थ तप्पा ओग्गमुक्कस्सट्ठिदिं बंधमाणस्स' इत्यादि वाक्य कहा है । सोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही तप्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशके द्वारा तद्योग्य उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है जिसका आबाधा काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । इस प्रकार बन्ध करनेवाले इस जीवके तद्योग्य जितनी उत्कृष्ट बाधा होती है उतने काल तक उत्कर्षंण में लगे हुए इस सजीवके अन्तिम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है यह इस सूत्र का भावार्थ है । इसके आगे स्वामित्वका विधान इसलिये नहीं किया है, क्योंकि वहाँ कायिकके नवकबन्धका सद्भाव पाया जाता है । यहाँ पर संचय आदिकी प्ररूपणा जानकर कर लेनी चाहिए ।
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विशेषार्थ- आशय यह है कि अभव्यों के योग्य जघन्य सत्कर्म करनेके लिये पहले इस जीवको पल्पके असंख्यातवें भागसे अधिक कर्मस्थितिप्रमाण काल तक सूक्ष्म एकेन्द्रियों में रहने दे । तथा इसका एकेन्द्रियोंमें रहनेका जो काल है उस कालके भीतर इसे त्रसोंमें उत्पन्न कराना युक्त नहीं है, क्योंकि इससे लाभके स्थान में हानि अधिक है। लाभ तो यह है कि पर्षण- उत्कर्षणके द्वारा प्रकृत निषेकका द्रव्य उत्तरोत्तर कम होता जाता है पर जितना यह द्रव्य कम होता है उससे बहुत अधिक न्यूतन द्रव्य उसमें प्राप्त होता रहता है, क्योंकि अपकर्षण- उत्कर्षण गुणकार से योगगुणकार असंख्यातगुणा बड़ा है इसलिये जब तक अभव्यके योग्य जघन्य द्रव्य नहीं होता तब तक इसे एकेन्द्रियों में ही रहने दे। फिर वहाँसे नसोंमें उत्पन्न करावे, यहाँ उत्पन्न होने पर तद्योग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे तद्योग्य उत्कृष्ट बाधा प्राप्त करनेके लिये उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करावे | फिर बाधा के अन्तिम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व प्राप्त करे । अबाधा के अन्तिम समय में प्रकृत जघन्य स्वामित्व प्राप्त कराने में दो लाभ हैं। एक तो पर्याय में आने पर जितने स्थान ऊपर जाकर जघन्य स्वामित्व प्राप्त हुआ है उतने गोपुच्छविशेषोंकी हानि देखी जाती है। और दूसरे उदयावतिके सिवा उतने काल तक उत्कर्षण होता रहता है, जिससे प्रकृत निषेकका द्रव्य उत्तरोत्तर सूक्ष्म होता जाता है । इस प्रकार बारह कषायोंके यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी कौन है इसका विचार किया ।
* इसी प्रकार पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा के विषय में भी जानना चाहिये |
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