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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए ट्ठिदियचूलियाए सामित्तं ९ ७२६. एदस्स सुत्तस्सत्थो बुच्चदे । तं जहा - जो जीवो सव्वावासयविसुद्धीए मणिगोदेसु कम्महिदिमणुपालिय अभवसिद्धियपाओग्गजहणपदेससंतकम्मं काऊण तेण सह सणिपंचिदिए उवण्णो । एसो च जीवो अकते काले कम्महिदीए अन्यंतरे सई पितसो ण आसी कम्मद्विदिव्यंतरे तसपज्जाय परिणामे को दोसो चे १ एइंदिय जोगादो असंखेज्जगुणतसकाइयजोगेण तस्थुष्पज्जिय बहुदव्वसंचयं कुणमाणस्स णिरुद्धद्विदीए जहण्णजहाणिसेयाणुपत्तिदो सदंसणादो । तसकाइएस आगंतून सम्मत्तप्पत्ति संजमासं जमादिगुण सेढिणिज्जराहिं पयदणिसेयस्स जहण्णीकरणवावारेणच्यमाणस्स लाहो दीसइ ति णासंकणिज्जं, ओकड्डुक्कडणभागहारादो जोगगुणागारस्स असंखेज्जगुणतेण अघाणिसेयदव्वस्स तत्थ णिज्जरादो आयस्स बहुतदंसणादो | तम्हा अक्कते काले कम्मद्विदिअन्यंतरे तसपज्जायपडिसेहो सफलो चि सिद्धं । .9 ९ ७२७, एत्थ कम्म हिदि त्ति भणिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भहियएइ दियकम्म हिदीए गहणं कायव्वं, सेसकम्पडिदिअवलंबणे पयदोवजो गिफल विसेसावलंभादो । जइ एवं पच्छा वि तसभावपत्थणा णिरत्थिया ति ण पञ्चवट े, ४४३ ६७२६. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । जो इस प्रकार है- जो जीव समस्त आवश्यकों की विशुद्धिके साथ सूक्ष्मनिगोदियों में कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा और अभव्यों के योग्य जघन्य सत्कर्म को प्राप्त करके उसके साथ संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ । किन्तु यह जीव इसके पूर्व कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर एक बार भी त्रस नहीं हुआ । शंका – कर्मस्थिति कालके भीतर त्रस पर्यायके योग्य परिणामोंके होनेमें क्या दोष है ? समाधान एकेन्द्रियके योगसे असंख्यातगुणे त्रसकायिकों के योग के साथ सोंमें उत्पन्न होकर बहुत द्रव्यका संचय करनेवाले जीवके विवक्षित स्थितिमें जघन्य यथानिषेककी प्राप्ति नहीं हो सकती है । यही बड़ा दोष है जिससे इस जीवको कर्मस्थिति कालके भीतर त्रसोंमें नहीं उत्पन्न कराया है । यदि ऐसी आशंका की जाय कि त्रसकायिकों में आकर सम्यक्त्वकी उत्पत्ति और संयम संयम आदिके निमित्तसे होनेवालो गुणश्रेणिनिर्जरात्रोंके द्वारा प्रकृत निषेकको जघन्य करने में लगे हुए जीवके लाभ दिखाई देता है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अपकर्षण- उत्कर्षणरूप भागहारसे योगका गुणकार असंख्यातगुणा होनेके कारण यथानिषेक द्रव्यकी वहाँ निर्जराकी अपेक्षा आय बहुत देखी जाती है, इसलिये पिछले बीते हुए समय में कर्मस्थिति भीतर पर्यायका निषेध करना सफल है यह सिद्ध होता है । १७२७. यहाँ सूत्रमें जो 'कर्मस्थिति' का निर्देश किया है सो उससे पल्य के असंख्यातवें भागसे अधिक एकेन्द्रियके योग्य कर्मस्थितिका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि शेष कर्मस्थितिका अवलम्बन करने पर प्रकृत में उपयोगीरूपसे उसका कोई विशेष लाभ नहीं दिखाई देता है। यदि ऐसा है तो एकेन्द्रिय पर्यायसे निकलनेके बाद भी पीछेसे त्रसपर्यायमें उत्पन्न कराना निरर्थक है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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