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________________ ४४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ * अप्पाबहुअं। 5 ७३२. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं । तं च दुविहं जहण्णुक्कस्सभेएण । तत्थुकस्सप्पाबहुअपरूवणमुत्तरसुत्तारंभो * सव्वपयडीणं सव्वत्थोवमुकस्सयमग्गहिदिपत्तयं । ६७३३. कुदो ? उक्कस्सजोगेण बद्धेयसमयपबद्धे अंगुलस्सासंखे०भागेण खंडिदे तत्थेयखंडपमाणतादो । * उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयमसंखेजगुणं । ६ ७३४, एत्थ गुणगारपमाणमोकड्डुक्कड्डणभागहारपदुप्पण्णकम्मडिदिणाणागुणहाणिसलागण्णोण्णभत्थरासिमेतं । णवरि तिण्णिवेदचदुसंजलणाणं तप्पाओग्गसंखेजरूबोवट्टिदअंगुलस्सासंखे०भागमेतो गुणगारो। एत्थोवट्टणं ठविय सिस्साणं गुणगारबिसओ पडिबोहो कायव्यो । 8 णिसेयहिदिपत्तयमुक्कस्सय विसेसाहियं ।। ७३५. केत्तियमेत्तेण ? ओकड्डुक्कड्डणाहिं गंतूण पुणो वि तत्थेव पदिददव्य * अब अल्पवहुत्वका अधिकार है। ७३२. अधिकारका निर्देश करनेवाला यह सत्र सुगम है । वह अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट। अब इनमेंसे उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्य सबसे थोड़ा है। ६७३३. क्योंकि उत्कृष्ट योगसे बाँधे गए एक समयप्रबद्धमें अङ्गुलके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध अावे उतना इसका प्रमाण है, इसलिये यह सबसे थोड़ा है। * उससे उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य असंख्यातगुणा है। ६७३४. यहाँपर अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे कर्मस्थितिके भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिको गुणा करनेपर जो लब्ध आवे उतना गुणकारका प्रमाण है । अर्थात् इस गुणकार से उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त द्रव्यके गुणित करनेपर उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य प्राप्त होता है यह इसका भाव है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अङ्गुलके असंख्यातवें भागमें तत्प्रायोग्य संख्यात अङ्कोंका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना तीन वेद और चार संज्वलनोंकी अपेक्षा गुणकार होता है। यहाँपर भागहारको स्थापित करके शिष्योंको गुणकारविषयक ज्ञान कराना चाहिये। * उससे उत्कृष्ट निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य विशेष अधिक है । ६ ७३५. शांका-कितना अधिक है ? समाधान-अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा जो द्रव्य व्ययको प्राप्त होता है उस . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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