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स्थितिवाले माने गये हैं । किन्तु इनके सिवा शेष जितने कर्मनिषेक हैं उनके कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण हो सकता है, इसलिए वे इसके योग्य होनेके कारण अपकर्पण से अमीन स्थितिवाले माने गये हैं । यहाँपर इतना विशेष समझना चाहिए कि उदयावलिसे ऊपर प्रत्येक निषेकमें ऐसे बहुतसे कर्मपरमाणु होते हैं जो निकाचितरूप होते हैं, अतः उनका भी अपकर्षण नहीं होता । पर सर्वथा अयोग्य नहीं होते, क्योंकि दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी ऐसे परमाणुओं का अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करनेपर और चारित्रमोहनीयसम्बन्धी ऐसे परमाणुओंका निवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करनेपर नित्ति और निकाचनाकरणकी व्युच्छित्ति हो जाने से अपकर्षण होने लगता है. इसलिए प्रकृत में ये कर्मपरमाणु भी अपकर्षण से कीन स्थितिवाले हैं इसका निर्देश नहीं किया है, क्योंकि अवस्थाविशेषमें इनमें अपकर्षणकी योग्यता मान ली गई है । परन्तु उदद्यावलिके भीतर स्थित जितने कर्मपरमाणु होते हैं उनमें त्रिकालमें भी ऐसी योग्यता नहीं पाई जाती है, अतः प्रकृतमें मात्र उदद्यावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओं को ही अपकर्षणसे न स्थितिवाला बतलाया गया है । सासादन गुणस्थान में दर्शनमोहनीयका अपकर्षण नहीं होता, इसलिए वहाँ पर भी यही समाधान समझ लेना चाहिए ।
उत्कर्षणकी अपेक्षा झीन और अमीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओं का निर्देश करते हुए जो कुछ कहा गया है उसका भाव यह है कि उदद्यावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओं का उत्कर्षण नहीं होता । उदयावलिके बाहर यदि विवक्षित कर्मका बन्ध हो रहा हो तो ही उसके सत्ता में स्थित कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण होता है । उसमें भी जिन कर्मपरमाणुओं की शक्तिस्थिति उत्कर्षंणके योग्य हो उनका ही उत्कर्षण होता है अन्यका नहीं। खुलासा इस प्रकार है- मान लो उदयालिसे उपरितन स्थितिमें स्थित जो निषेक है उसके जिन परमाणुओं की शक्तिस्थिति अपनी व्यक्त स्थितिके बराबर है । अर्थात् जिन्हें बँधे हुए एक समय अधिक उदयावलिसे न्यून कर्मस्थितिके बराबर काल बीत चुका है उन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि इन
परमाणुओं में शक्तिस्थितिका अत्यन्त अभाव है । इसी स्थितिमें स्थित निषेकके जिन कर्मपरमाणुओं की शक्तिस्थिति एक समय शेष है । अर्थात् जिन्हें बँधे हुए दो समय अधिक उद्यावलिसे न्यून कर्मस्थितिके बराबर काल बीत चुका है उन कर्मपरमाणुओं का भी उत्कर्षंण नहीं होता, क्योंकि यहाँपर निक्षेपका तो अभाव है ही, अतिस्थापना भी कमसे कम जघन्य बाधा प्रमाण नहीं पाई जाती। इस प्रकार इसी स्थिति में स्थित निषेकके जिन कर्मपरमाणुओं की शक्तिस्थिति दो समय और तीन समय आदिको उलंघनकर जघन्य आवाधाप्रमाण शेष है । अर्थात् जिन्हें बँधे हुए जघन्य आबाधा से न्यून कर्मस्थितिके बराबर काल बीत चुका है उन कर्मपरमाणु का भी उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि यहाँपर अतिस्थापना के पूरा हो जानेपर भी निक्षेपका अत्यन्त अभाव है । इसी स्थितिमें स्थित निषेकके जिन कर्मपरमाणुओं की शक्तिस्थिति एक समय अधिक बाधाप्रमाण शेष है। अर्थात् जिन्हें बँधे हुए एक समय अधिक बाधाकाल से न्यून कर्मस्थितिके बराबर काल बीत चुका है उन कर्मपरमाणुओं का एक समय अधिक आबाधाप्रमाण उत्कर्षण होकर बाधा के ऊपरकी स्थितिमें निक्षेप होना सम्भव है, क्योंकि यहाँपर अतिस्थापनाके साथ एकसमय प्रमाण निक्षेप ये दोनों पाये जाते हैं। इसी प्रकार इसी स्थिति में स्थित निषेक के जिन कर्मपरमाणुओं की शक्तिस्थिति दो समय अधिक जघन्य आवाधाप्रमाण, तीन समय अधिक जघन्य
बाधाप्रमाण इत्यादि क्रमसे एक वर्ष, वर्षपृथक्त्व, एक सागर, सागरपृथक्त्व, दस सागर, दस सागरपृथक्त्व, सौ सागर, सौ सागरपृथक्त्व, हजार सागर, हजार सागरपृथक्त्व, लाख सागर, लाख सागरपृथक्त्व, कोड़ि सागर, कोड़ी सागरपृथक्त्व, अन्तः कोड़ (कोड़ी, कोड़ाकोड़ी सागर और
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