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________________ ( १३ ) कोडाकोड़ी सागरपृथक्त्वप्रमाण शेष है । अर्थात् उक्त शेष स्थितिको छोड़कर बाकी की कर्मस्थिति के बराबर काल बीत चुका है तो उन कर्म परमाणुओं का आवाधाप्रमाण अतिस्थापना को छोड़कर अपनी-अपनी योग्य शेष रही शक्तिस्थितिप्रमाण स्थिति तक उत्कर्षण होकर निक्षेप होना सम्भव है। ___ यहाँ यह जो एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिको माध्यम बनाकर उत्कर्षणका विचार किया जा रहा है सो उस स्थितिमें किस निषेकके कर्मपरमाणु हैं और किसके नहीं हैं इसका विचार करते हुए बतलाया है कि जिसका बन्ध किये हुए एक समय, दो समय और तीन समय आदिके क्रमसे एक श्रावलि काल व्यतीत हुआ है उन सब निषेकोंके कर्मपरमाणु विवक्षित स्थितिमें नहीं पाये जाते । कारण यह है कि बन्धके बाद एक आवलिकाल तक न्यूतन बन्धका अपकर्षण नहीं होता और आबाधा कालके भीतर निषेक रचना नहीं होती, अतः विवक्षित स्थितिके पूर्व एक आवलि काल तक बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओंका उस स्थितिमें नहीं पाया जाना स्वाभाविक है। हां इस एक आवलिसे पूर्व बन्धको प्राप्त हुए समयप्रबद्धोंके कर्म परमाणु अपकर्षग होकर वहां पाये जाते हैं इसमें कोई बाधा नहीं आती। फिर भी ऐसे कर्मपरमाणुओंका यदि उत्कर्षण हो तो उनका निक्षेप एक समय अधिक एक प्रावलिकम कर्मस्थितिके अन्ततक हो सकता है। मात्र इनका निक्षेप तत्काल बंधनेवाले कर्मके आबाधा कालके ऊपर ही होगा यहां इतना विशेष जानना चाहिए। यह दूसरी प्ररूपणा है जो नवकबन्धकी मुख्यतासे की गई है । पहली प्ररूपणा प्राचीन सत्तामें स्थित कर्मों की मुख्यतासे की गई थी, इसलिए ये दोनों प्ररूपणाऐं स्वतंत्र होनेसे इनका मूलमें अलग अलग विवेचन किया गया है। यहां दूसरी प्ररूपणाके समय अवस्तुविकल्पोंका भी निर्देश किया गया है। किन्तु प्रथम प्ररूपणाके समय उनका निर्देश नहीं किया गया है, इसलिए यहां यह शंका होती है कि क्या प्रथम प्ररूपणाकी अपेक्षा एक भी अवस्तु विकल्प नहीं होता सो इसका समाधान यह है कि अवस्तुविकल्प तो वहाँ भी सम्भव है। अर्थात् विवक्षित स्थिति (एक सनय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थिति) में इससे पूर्व उदयावलिप्रमाण निषेकोंका सद्भाव नहीं पाया जाता फिर भी यह बात बिना कहे ही ज्ञात हो जाती है, इसलिए प्रथम प्ररूपणाके समय इन अवस्तु विकल्पोंका निर्देश नहीं किया है । विशेष खुलासा मूलमें यथास्थान किया ही है, इसलिए इसे वहांसे विशेष रूपसे समझ लेना चाहिए। उद्यावलिके ऊपर जो प्रथम स्थिति है उसकी विवक्षासे यह प्ररूपणा की गई है। किन्तु इसके ऊपरकी स्थितिकी अपेक्षा प्ररूपणा करने पर अवस्तुविकल्प एक बढ़ जाता है, क्योंकि उदयावलिके भीतरकी सब स्थितियोंमें स्थित निषेकोंके कर्मपरमाणु तो इसमें पाये ही नहीं जाते, साथ ही उससे उपरितन स्थितिमें स्थित निषेकके कर्मपरमाण भी नहीं पाये जाते; क्योंकि इन निषेकोंमें स्थित कर्मपरमाणओंकी शक्तिस्थिति इस विवक्षित स्थितिके पूर्व ही समाप्त हो जाती है। तथा झीनस्थितिविकल्प एक कम होता है, क्योंकि आबाधामें एक समयकी कमी हो जानेसे झीनस्थितिविकल्पों में भी एक समयकी कमी हो गई है। मात्र इसकी अपेक्षा अझीन स्थितियोंमें भेद नहीं है। यह प्रथम प्ररूपणाकी अपेक्षा विचार है। इसी प्रकार दूसरी प्ररूपणाको ध्यानमें रखकर विचार कर लेना चाहिए। तथा आगे भी इसी प्रकार विचार कर किस निषेकके कितने कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे झीनस्थिति हैं और कितने कर्मपरमाणु अझीनस्थिति हैं। साथ ही उनमें अवस्तुविकल्प कितने हैं और जिनका उत्कषण हो सकता है उनका वह कहाँ तक होता है इत्यादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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