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________________ १६८ जयधबलासहिदे फसायपाहुरे [पदेसविहत्ती ५ वासपुधत्तं । ३३४. तिरिक्खगईए तिरिक्खाणमोघो । गवरि लण्णोक० अवहि० णत्थि। पुरिस० अवहि. वासषुधत्तं णत्थि । पंचिंतिरि०अपज. पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि सम्म-सम्मामि० अप्प० पुरिस० भुज०-अप्प० पत्थि अंतरं । सेसपदाणि अणंताणु० अवत्तव्वं च गत्थि । मणुसअपज्ज. छव्वीसं पयडीणं भुज०-अप्प० सम्म०-सम्मामि० अप्प० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। जेसिमवाहिदपदमत्थि तेसिं जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अणुद्दिसादि जाव सव्वहा ति मिच्छ०-सम्म-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क०-इत्थिा -णवूस. अप्प. चउणोक. भुज०-अप्प० पत्थि अंतरं । बारसक०-पुरिस-भय-दुगुंछा० रइयभंगो । एवं जाव अणाहारि ति। णाणा० अंतरं समत्तं । $ ३३५. भावाणुगमेण दु० णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सचपयडीणं सबपदा ति को भावो ? ओदइओ भावो । एवं जाव अणाहारि ति। भावाणुगमो समत्तो। वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। विशेषार्थ-अपने अपने स्वामित्वको देखकर यहाँ सब प्रकृतियोंके अपने अपने पदोंका अन्तर काल घटित कर लेना चाहिए। विशेष वक्तब्य न होनेसे हमने अलग अलग खुलासा नहीं किया है । तथा इसीप्रकार आगे भी जान लेना चाहिए। . ६३३४. तिर्यश्चगतिमें सामान्य तियश्चोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंका अवस्थितपद नहीं है। तथा पुरुषवेदके अवस्थित पदका वर्षपृथक्त्वप्रमाण अन्तर काल नहीं है। पञ्च न्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तियंञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति तथा पुरुषवेदकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका अन्तर काल नहीं है। इनके शेष पद तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्यपद नहीं है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। जिनका अवस्थितपद है उनके इस पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अल्पतरविभक्ति तथा चार नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका अन्तर काल नहीं है । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग नारकियोंके समान है। इसप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। - इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर काल समाप्त हुआ। ६३३५. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे सब प्रकृतियोंके सब पदोंका कौन भाव है ? औदयिकभाव है। इसप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इसप्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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