SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२ ] तरपय डिपदेस बिन्तीए भुजगारे गाणाजीबेहि अंतरं १६७ ९ ३३३. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सोलसक० - पुरिस०-मय- दुर्गुछ० भुज ०अप्प णत्थि अंतरं णिर० । अवहिं० जह० एस ०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । सम्म० सम्मामि० छण्णोक० ओघो । णवरि छण्णोक० अवहि० णत्थि | अणंताणु ० चउक्क० अवत० ओघो । एवं सत्तसु पुढवीसु । पंचि०तिरिक्खतिय- मणुसतिय-देवा भवणादि जाव उवरिमगेवज्जा ति एवं चेव । णवरि मणुसतियम्मि सत्तणोक० प्रवद्वि० ओघं । बारसक०-भय-दुगुंछाणं पि अवद्वि० उवसमसेदिविवक्खाए विशेषार्थ - ओघसे मिथ्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंके तीन पदोंका | काल सर्वेदा घटित करके बतला आये हैं, इसलिए यहां उक्त प्रकृतियोंके इन पदोंके अन्तरकालका निषेध किया है । यह सम्भव है कि जिन्होंने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है वे जीव कमसे कम एक समयके अन्तरसे उनसे संयुक्त हों, इसलिए तो इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और जिन्होंने इनकी विसंयोजना की है ऐसा एक भी जीव अधिक से अधिक साधिक चौबीस दिन रात तक इनसे संयुक्त न हो यह भी सम्भव है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके वक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले मिध्यादृष्टि जीव निरन्तर पाये जाते हैं और वे उनकी अल्पतरविभक्ति ही करते हैं, इसलिए इनके अल्पतर पदके अन्तरकालका निषेध किया है । इनकी भुजगार विभक्ति सम्यग्दृष्टिके होती है और उपशमसम्यक्त्वका जघन्य अन्तर एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात दिन-रात है, इसलिए इनके भुजगारपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात दिन-रात कहा है। तथा इनका अवस्थितपद सासादनसम्यग्दृष्टिके होता है, इसलिए सासादनके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल के समान इनके अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। एकेन्द्रियादि जीवोंके भी छह नोकषायोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्ति होती रहती है, इसलिए इनके उक्त दोनों पदोंके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा इनकी अवस्थितविभक्ति उपशमश्रेणिमें होती है, इसलिए इनके इस पदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्वप्रमाण कहा है। पुरुषवेदका अन्य सब भङ्ग छह नोकषायों के समान ही है । मात्र उसके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल दो प्रकारसे बतलाया सो विचार कर घटित कर लेना चाहिए । $ ३३३. आदेशसे नारकियोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका अन्तर काल नहीं है निरन्तर है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और छह नोकषायका भङ्ग घके समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ छह नोकषायोंका अवस्थित पद नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य पदका भङ्ग ओघके समान है । इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए । पचन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, देव और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रवेयक तकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिमें सात नोकषायोंके अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है । तथा बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी भी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर काल उपशश्रेणिकी विवक्षासे १. प्राoप्रतौ 'थिर० । सिगमा अवद्वि०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy