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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूवणा ५३. मणुस-मणुसपज्जत्तएसुमिच्छ०-एक्कारसक०-णवणोक० जहण्णाजहण्ण. पत्थि अंतरं । सम्म०-सम्मामि० जह० णत्थि अंतरं। अज० जह० एगस०, उक० तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तणब्भहियाणि । अणंताणु०चउक० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह. अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसणाणि । लोभसंज. जह० पत्थि अंतरं। अज. जहण्णुक्क० एगस। एवं मणुस्सिणीणं । णवरि पुरिसवेद० लोभसंजलणभंगो । मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्ख अपजत्तभंगो । है, उसे सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके उत्कृष्ट अन्तरकालमें कुछ विशेषता है, इसलिए इनके अन्तरकालका निर्देश अलगसे किया है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होनेके बाद यहाँ पुनः इनका सत्त्व सम्भव नहीं है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा शेष सात नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध होनेके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है। ५३. मनुष्य और मनुष्य पर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेश विभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। लोभ संज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदका भङ्ग लोभसंज्वलनके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-सामान्य मनुष्य आदि तीनों प्रकारके मनुष्योंमें मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकपायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है । मात्र मनुध्यिनियोंमें पुरुषवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए यहाँ इसकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय सम्भव होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य उद्वेलनाकी अपेक्षा बन जाता है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है। तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य विसंयोजनाकी अपेक्षा बन जाता है, इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है । तथा संज्वलन लोभकी जघन्य प्रदेशविभक्ति यहाँ क्षपणाके अन्तर्मुहर्त पूर्व होती है, इसलिए इसकी अजघन्य १. अप्रतौ 'मणुसअपजत्तएसु' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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