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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ५४. देवगदीए देवेसु मिच्छ०-बारसक०-इत्थि०-णqस०-भय-दुगुंछा० जहण्णाजहण्ण. णथि अंतरं। सम्म० सम्मामि० जह० णत्थि अंतरं। अज० जह० एगस०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु०चउक: जह० णत्थि । अंतरं । अज० जह• अंतोमु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । पुरिसवेदहस्स-रदि-अरदि-सोग० जह• पत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क० एगस० ५५. भवणादि जाव उपरिमगेवज्जा त्ति मिच्छ -बारसक०-इत्थि-जस०भय-दुगुंछा० जहण्णाजहण्ण. णत्थि अंतरं । सम्म०-सम्मामि० अणंताणु० चउक्क० जह० पत्थि अंतरं । अज जह• एगस० अंतोमु०, उक्क० सग-सगहिदीओ देसूणाओ । प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है। मनुष्य अपर्याप्तकोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है यह स्पष्ट ही है। ५४. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। 'अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी. जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तर नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। . विशेषार्थ-देवोंमें मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके अन्तिम समयमें तथा बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेश विभक्ति भवग्रहणके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होकर पुनः सत्त्व तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना होकर पुनः सत्त्व अन्तिम अवेयक तक ही सम्भव है। आगे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना नहीं होती और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना तो होती है पर उन जीवोंका नीचे गिरना सम्भव नहीं होनेसे पुनः सत्त्व नहीं होता, इसलिए इन छह प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है। इनमेंसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है। यहाँ पुरुषवेद आदिकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भक्के प्रारम्भमें अन्तर्मुहूर्त काल जाने पर प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय सम्भव होनेसे वह उक्त काल प्रमाण कहा है। ५५. भवनवासियोंसे लेकर उपस्मि अवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कपाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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