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________________ २०६ 'जयधषलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ भागहा० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु. । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवड्डी. हाणी० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । 8 ३७४. पंचि०तिरि०अपज० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडी० हाणी. अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहा० जह० उक्क० एगस० । असंखे०गुणहाणी० त्थि अंतरं । सत्तणोक० असंखेजभागवडी० हा० ज० एगस०, उक० अंतोमु० । ३७५. मणुसगदि० मणुस० पंचिं०तिरिक्खभंगो । णवरि मिच्छ०-एकारस०इत्थि०-पुरिसक-णवंस० असंखे गुणहाणी. चदुसंजल. असंखे०गुणवड्डी० पत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०गुणवड्डी० सम्मामि० असंखे०गुणहा. जह० अंतोमु । मणुसपज. एवं चेत्र । गवरि इत्थि० असंखे०गुणहाणी पत्थि । मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि पुरिस०-णवंस० असंखे०गुणहाणी णत्थि। मणुसअपज्ज. पंचि०तिरिक्व ० अपजतभंगो। ___ ३७६. देवगदि० देवा० मिच्छ० असंखें०भागवड्डी० अवहि० ज० एगस०, उक्क० एकत्तीस सागरो० देसूणाणि । असंखे भागहाणी. जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्म०-सम्मामि० असंखे०भागवडी० असंखे०गुणवड्डी० है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। ६३७४. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । असंख्यातगुणहानिका अन्तरकाल नहीं है। सात नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। ६३७५. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातगुणहानि और चार संज्वलनोंकी असंख्यातगुणवृद्धिका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणवृद्धि और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यपर्याप्तकोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। मनुष्यनियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदकी असंख्यातगुणहानि नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। ६३७६. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व Arrrry Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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