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________________ २०७ गा० २२] सत्तरपयतिपदेसविहत्तीए बड्डीए अंतरं हा० अवत्त० ज० पलिदो० असंखे०, भागहा० ज० एगस०, उक्क० दो वि एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु०४ असंखे०भागवडी० हाणी० अवहि० ज० एगस०, उक्क० एकतीसं सागरो० देसूणाणि । संखे०भागवड्डी० संखे०गुणवड्डी० असंखे०. गुणवडी० हाणी० अवत्त० ज० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं० सागरो० देसूणाणि । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० असंखे०भागवडी० हा० जह० एगसमभो, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । इत्थि-णस० असंखे भागवड्डी० जह० एगस०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि। असंखे० भागहा. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं असंखे०भागवडी० हाणी. जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं भवणादि जाव उवरिमगेवज्जा त्ति । णवरि जम्हि एकत्तीसं जम्हि य तेत्तीसं तम्हि सगहिदीओ भाणिदवारो। ६३७७. अणुद्दिसादि जाव सव्वहा ति मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-इत्थिणवंस. असंखे भागहाणी० णत्थि अंतरं । अणंताणु०४ असंखे०भागहा० ज० उक्क० एगसमओ, बारसक-पुरिस०-भय-दुगुंछ. असंखे०भागवडि-हा. ज. एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि० ज० एगसमओ, उक्क. सगहिदी देसूणा । और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और एक समय है तथा उत्कृष्ट अन्तर दोनों ही कुछ कम इकतीस सागर है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और श्रवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यातमागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार भवन. वासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहां पर इकतीस सागर और जहां पर तेतीस सागर कहा है वहां वर अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। ६३७७, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपंसकवेदकी असंख्यातभागहानिका अन्तरकाल नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतष्ककी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी असंख्याभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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