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________________ ३१४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ त्ति णासंकणिज्ज तत्थतणसंकिलेसादो एत्थ संकिलेसबहुत्तुवलभेण तहा करणादो । कुदो संकिलेसबहुत्तमिच्छिज्जदि ति चे ण, मिच्छत्तं गदपढमसमए ओकड्डि य उदयावलियभंतरे णिसिंचमाणदव्वस्स थोवयरीकरण तहाब्भुवगमादो । ण च संकिलेसकाले बहुदव्वोकड्डणासंभवो, विरोहादो । ५३८. तदो एवं मुत्तत्थसंबंधो कायव्वो-जो उचसमसम्माइटी उवसमसम्मत्तद्धाए छसु आवलियासु सेसासु परिणामपञ्चएण आसाणं गदो, तदो तस्स अणंताणुबंधितिव्वोदयवसेण पडिसमयमणंतगुणाए संकिलेसवुडीए वोलाविय सगदस्स पढमसमयमिच्छाइहिस्स जहण्णयमोकड्डणादो झीणहिदियमिदि । एसो पयदसामिओ खविद-गुणिदकम्मंसियाणं कदरो ? अण्णदरो । कुदो ? मुत्ते खविदेयरविसेसणादसणादो। खविदकम्मंसियत्तं किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, एत्थ परिणामवसेण संकिलेसावरणलक्षणेण उदयावलियम्भंतरे ओकड्डिय णिसिंचमाणदव्वस्स खविद-गुणिदकम्मंसिएसु समाणपरिणामेसु सरिसत्तदंसणेण खविदकमंसियगहणे फलविसेसाणुव समाधान-ऐसी आशंका करनी ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके प्राप्त होनेवाले संक्लेशसे सासादनमें बहुत अधिक संक्लेश पाया जाता है, इसलिये ऐसा किया है। शंका-यहाँ अधिक संक्लेश किसलिये चाहा गया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें अपकर्षण होकर उदयावलिके भीतर दिये जानेवाले द्रव्यके थोड़ा प्राप्त करनेके लिये ऐसा स्वीकार किया है। यदि कहा जाय कि संक्लेशके समय बहुत द्रव्यका अपकर्षषण हो जायगा सो बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। ५३८. इसलिये इस सूत्रका यह अर्थ समझना चाहिये कि जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व के काल में छह आवलि कालके शेष रहने पर परिणामोंके निमित्तसे सासादनको प्राप्त हुआ। फिर वहाँ अनन्तानुबन्धीके तीव्रोदयसे प्रति समय अनन्तगुणी हुई संक्लेशकी वृद्धिको बिताकर जब वह मिथ्यादृष्टि होता है तब मिथ्यादृष्टि होनेके प्रथम समयमें वह अपकर्षण आदि तीनसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है । शंका-यह प्रकृत स्वामी क्षपितकोश और गुणितकांश इनमेंसे कौन-सा है ? सामाधान-दोनोंमेंसे कोई भी हो सकता है। शंका-सो कैसे ? समाधान-क्योंकि सूत्रमें क्षपितकर्माश या गुणितकांश ऐसा कोई विशेषण नहीं दिखाई देता। शंका-यहाँ क्षपितकाश क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि संक्लेशको पूरा करनेवाले परिणामके निमित्तसे अपकर्षण करके उदयावलिके भीतर जो द्रव्य दिया जाता है वह एक समान परिणामवाले क्षपितकांश और गुणितकांश जीवोंके समान देखा जाता है, इसलिये यहाँ सूत्र में क्षपितकांश पदके ग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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